यात्रा
भाग-1
भारत के किसी पर्यटक स्थल पर चलें जाएँ, स्वदेशी पर्यटकों को प्रायः अपने परिवार के साथ या दोस्तों के परिवार के साथ या फिर दोस्तों की टोली के साथ पर्यटन करते पाते हैं। हिंदुस्तानी महिला तो दूर, हिंदुस्तानी पुरुष को भी किसी पर्यटन स्थल पर अकेला पर्यटन के उद्देश्य से नहीं देखा जा सकता। इसके लिए शायद हम हिंदुस्तानियों की मानसिकता जिम्मेदार है। हमारे अंदर जो बचपन से एक असुरक्षा की भावना बैठा दी गयी है, वो भी कहीं न कहीं इसके लिए जिम्मेदार है।
अगर हम विदेशी शैलानियों को देखे, तो उनमें हमें कई ऐसे शैलानी (महिला और पुरुष दोनों) मिल जाएंगे जो अपने देश से भारत भ्रमण के लिए अकेला आए हुए होते हैं और हमारे देश को कहीं हमसे ज्यादा जानते हैं। मूलतः इसका कारण उनका पालन पोषण का तरीका, वयस्क की उम्र प्राप्त करते ही अपने ऊपर आश्रित होना और अपने भले-बुरे का फैसला खुद लेना भी हो सकता है। इसके बिलकुल विपरीत हम भारतीय माता-पिता अपने बच्चों को हर कदम पर उन्हे टोकना और शिक्षा देने में अपनी बड़प्पन समझते हैं। हमें शायद लगता है कि हम जो कह या कर रहे हैं वो ही सही है। हमारे बच्चे जो सोचते, समझते या करना चाहते हैं, माता-पिता की नजरों में वयस्क होते हुए भी उसके लिए वो परिपक्व नहीं समझे जाते हैं। नतीजतन, हम भारतीय अपने बच्चों को कभी आत्म-निर्भर होने ही नही देते। और जो कुछ बच्चे अपने बल-बूते और समझ से आत्म-निर्भर हो जाते हैं या होना चाहते हैं, उन्हें हम प्रायः कई सारे विशेषणों से सुशोभित कर देते हैं जैसे उद्दंड, अपने मन का करने वाला, माता-पिता की बात नहीं सुनने वाला, इत्यादि।
इस प्रकार के व्यवहार के लिए शायद हम माता-पिता को भी दोषी नहीं ठहरा सकते क्योंकि उन्होने अपने जीवन काल में अपने इर्द-गिर्द जो हालात देखे हैं, उसकी वजह से उनमें एक असुरक्षा की भावना पैठ बना लेती है और वो नहीं चाहते कि जिस बच्चे को उन्होने इतने लाड़-प्यार से पाल-पोषकर बड़ा किया है, उसके साथ कुछ अनहोनी हो जाए और वो बच्चे के सुख से वंचित हो जाएँ। इसके लिए भारतीय सामाजिक संरचना को भी जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, जहां हर माता-पिता अपने बच्चे में अपने बुढ़ापे का सहारा देखता है और इसी कुंठा में जीता रहता है कि कहीं उसका बच्चा उससे दूर न हो जाए। उनके बुढ़ापे में उनका कौन ख्याल रखेगा? हालांकि समय के साथ और नयी पीढ़ी की सोच ने अब धीरे-धीरे पुराने विचारों को दरकिनार करना शुरू कर दिया है। आजकल के बच्चे अब जल्दी आत्मा-निर्भर होने लगे हैं और खुद से हर छोटे-बड़े निर्णय भी लेने लगे हैं, भले ही उनके माता-पिता इस बात का बुरा माने। संभव है उनमें से कुछ निर्णय गलत भी हों। अगर देखा जाए तो एक तरीके से यह सही भी है। कब तक हम अपने विचारों को नाय पीढ़ी पर थोपते रहेंगे। उन्हे अपने तरीके से जीने देना ही उचित है। और शायद तभी वो सही-गलत निर्णय का तुलनात्मक समीक्षा भी कर पाएंगे।
विदेशों में माता-पिता अपने बच्चों की परवरिश कभी इस भावना के साथ नहीं करते कि उनका बच्चा ही उनके बुढ़ापे का सहारा बनेगा। मूलतः उन देशों की सामाजिक संरचना और उन सरकारों द्वारा चलाई जा रही सामाजिक सुरक्षा योजनाएँ, उन बच्चों को आत्म-निर्भर बनाने एवं उनके माता-पिता को अपने बच्चों को उन्मुक्त रहने के लिए प्रेरणा देता है। और शायद यही एक महत्वपूर्ण वजह है स्वदेशी पर्यटक और वेदेशी पर्यटक के भ्रमण के तौर-तरीके में।
विदेशों में माता-पिता अपने बच्चों की परवरिश कभी इस भावना के साथ नहीं करते कि उनका बच्चा ही उनके बुढ़ापे का सहारा बनेगा। मूलतः उन देशों की सामाजिक संरचना और उन सरकारों द्वारा चलाई जा रही सामाजिक सुरक्षा योजनाएँ, उन बच्चों को आत्म-निर्भर बनाने एवं उनके माता-पिता को अपने बच्चों को उन्मुक्त रहने के लिए प्रेरणा देता है। और शायद यही एक महत्वपूर्ण वजह है स्वदेशी पर्यटक और वेदेशी पर्यटक के भ्रमण के तौर-तरीके में।
जहां हम स्वदेशी पर्यटक आम पर्यटन स्थलों पर घूमना पसंद करते हैं इसके ठीक विपरीत विदेशी पर्यटक किसी सुदूर और एकांत इलाके में भी घूमना पसंद करते हैं। स्वदेशी पर्यटक किसी भी प्रकार की असुविधा के ख्याल से ही घबरा जाते हैं, जबकि विदेशी शैलनियों को असुरक्षा और असुविधा कभी उन्हें अपने मकसद (भ्रमण) से विचलित नहीं होने देती। विदेशी शैलनीयों को सड़क किनारे एक छोटे से टेंट में रात गुजारते देखा जा सकता है। हम खुद अपने देश का नागरिक होकर भी रात को टेंट में गुजारने का कल्पना भी नहीं कर सकते। सड़क किनारे रात गुजारने के विचार मात्र से हमारे अंदर किसी अनहोनी का विचार उत्पन्न होने लगता है मानो सारी कायनाथ हमारे साथ अनहोनी करने के लिए ही इंतज़ार कर रही हो। नतीजतन हम स्वदेशी शैलानी एक आरामदायक और बंद कमरे की तलाश में रहते हैं और पर्यटन का आनंद उस स्तर का नहीं ले पाते जो यह विदेशी शैलानी ले लेते हैं।
क्रमशः
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