गुरुवार, 25 फ़रवरी 2016

जातीगत आरक्षण : वरदान या अभिषाप


भारत का संविधान हमें समान रूप से स्वतंत्रता प्रदान करता है और यह भारत सरकार की ज़िम्मेदारी बनती है कि वो इस बात का खयाल रखे कि समाज के सभी तबके को समान अधिकार मिले। संविधान निर्माताओं ने आरक्षण के जरिये समाज के कमजोर एवं पिछड़े तबके को समान अधिकार देने की कल्पना की थी। संविधान में १० वर्ष पश्चात आरक्षण के समीक्षा की बात कही गयी थी। आज संविधान के लागु होने के तक़रीबन ६५ वर्ष बीत जाने के बाद, आरक्षण ने समाज में समानता की जगह असामनता को बढ़ावा दिया है।

आरक्षण के प्रावधान ने आज भारतीय समाज को तीन ध्रुव में विभाजित कर दिया है। एक ध्रुव वैसे लोगों का है जिन्हें आरक्षण में मिली सुविधा से संतुष्ट हैं (जैसे अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जाति, इन्हें २२.५% आरक्षण उपलब्ध है); दूसरे ध्रुव में वैसे लोग हैं जिन्हें आरक्षण में मिली सुविधा से संतुष्ट नहीं हैं (२७% आरक्षण प्राप्त अन्य पिछड़ी जाति में सम्मिलित लोग); तीसरा ध्रुव ऐसे लोगों का है जिन्हे आरक्षण की कोई सुविधा प्राप्त नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में आरक्षण के समर्थन में हमारे देश में समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों ने जिस प्रकार इस देश की संपत्ति को नुकसान पहुँचाया है, इससे तो यही प्रतीत होता है कि जातिगत आरक्षण जिसकी कल्पना समाज में समानता प्रदान करने के लिए किया गया था, आज वही प्रावधान इस समानता के राह में सबसे बड़ा बाधक बन चूका है। आरक्षण हमें आगे बढ़ने की बजाए पीछे धकेल रहा है।


अब समय आ चूका है कि भारतीय समाज इस बात की समीक्षा करे कि क्या सचमुच आरक्षण का फायदा सही मायने में उन लोगों को प्राप्त हुआ है जिनकी कभी कल्पना की गयी थी? संविधान में शुरुआती तौर पर आरक्षण का प्रावधान सिर्फ अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जाति के लोगों के उत्थान के लिया किया था। सत्य तो यही है कि ६६ वर्षों के आरक्षण के बाद भी, निचली जाति के अधिकांश लोग ऐसे हैं जिन्हें आरक्षण का फायदा कभी नहीं मिला। उन्हें आज भी अपने मौलिक अधिकार के लिए रोजाना भेदभाव का सामना करना पड़ता है। यहाँ यह समझने की आवश्यकता है कि आरक्षण का फायदा आरक्षित श्रेणी के उन लोगों को पहुंचा है जो पहले से ही समृद्ध थे या आरक्षण का लाभ उठाकर समृद्ध हो गए हैं। जरा सोचिए, भारतीय प्रशासनिक सेवाएँ (IAS) की परीक्षा उत्तीर्ण कर अनुसूचित जनजाति या अनुसूचित जाती के हजारों लोग आज राजपत्रित अधिकारी बने हुए हैं। भला ऐसे उच्च पदस्थ अधिकारीयों को आरक्षण की क्या आवश्यकता है? परंतु सच्चाई यही है कि समाज के ऐसे ही प्रतिष्ठित व्यक्ति वर्ष-दर-वर्ष, पीढ़ी-दर-पीढ़ी आरक्षण का लाभ उठा रहे हैं। अन्य पिछड़े वर्ग के लोगों को आरक्षण देने के लिए केंद्र एवं राज्य सरकारों ने २७% आरक्षण की घोषणा की थी। पिछड़ापन निर्धारण के लिए सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक स्तर को सूचक बनाया गया। यहाँ भी आरक्षण का फायदा उन्हीं लोगों को मिल रहा है जिनका स्तर पहले से ही अच्छा रहा है।


आज यह आलम है कि आरक्षण का मुद्दा अब एक वोट बैंक में तब्दील कर दिया गया है। राजनितिक पार्टियाँ आरक्षण जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे को किसी भी कीमत पर ख़त्म नही होने देना चाहती हैं। हर राजनितिक दल अपने को दलितों, पिछड़े वर्ग, मुस्लिम इत्यादि का मसीहा कहलाने में लगा हुआ है। दलितों का मशीहा कहे जाने वाले रामविलास पासवान, सुश्री मायावती जैसे सरीखे नेताओं ने भी सिवाय अपने राजनितिक लाभ के अलावा दलित समाज के पिछड़ेपन में सुधार लेन का कोई कार्य नहीं किया है। सामाजिक, शैक्षणिक एवं आर्थिक रूप से संपन्न नेताओं को आरक्षण क्यों मिलना चाहिए?


कोई राजनितिक दल इस संवेदनशील मुद्दे को उठाकर राजनैतिक नुकसान उठाने की जहमत नही उठाना चाहता। अभी हाल ही में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख ने आरक्षण की समीक्षा का व्यक्तिगत राय व्यक्त किया था। समूचे देश में राजनितिक दलों ने ऐसा हाय-तौबा मचाया कि प्रधानमंत्री महोदय को घोषणा करनी पड़ी कि आरक्षण को ख़त्म नहीं किया जायेगा। संघ प्रमुख ने समीक्षा की बात की थी, आरक्षण ख़त्म करने की नहीं। आरक्षण ने सरकारी तंत्र को बर्बाद कर ही दिया है, अब पिछड़े वर्ग के राजनेताओं द्वारा हर संभव प्रयास किया जा रहा है कि निजी क्षेत्र में भी आरक्षण को लागु किया जाये और वो दिन दूर नहीं जब निजी क्षेत्र भी समाज के इस कोढ़ से अछूता नहीं रहेगा। अब तो हालात ऐसे हैं कि जो जाती एक बार आरक्षण की सूचि में सम्मिलित हो गए हैं, सामाजिक और आर्थिक उन्नति के बावजूद उस सूचि से किसी भी सूरतेहाल में बाहर नहीं निकलना चाहते हैं।


अभी कुछ दिनों पूर्व, हरियाणा राज्य के जाटों ने अपने जाती के लोगों को अन्य पिछड़ा वर्ग में सम्मिलित कर आरक्षण देने की मांग की। अपने मांग के समर्थन में उन्होंने धरना, सड़क जाम, तोड़-फोड़, मारपीट, सरकारी एवं निजी संपत्तियों को काफी नुकसान पहुँचाया। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली को पानी की आपूर्ति करने वाली नहर के एक हिस्से को क्षति पहुंचाई गई। स्थिति को सामान्य करने के लिए सेना को बुलानी पड़ी। कई शहरों में कर्फ्यू लगाई गई और बवालियों को देखते ही गोली मार देने का आदेश दिया गया। सिर्फ रोहतक शहर के अंदर तक़रीबन हजार करोड़ की संपत्ति को क्षति पहुंचाई गई। जो धरना आरक्षण के मांग को लेकर शुरू हुआ वह बाद में गैर-जाट के संपत्तियों को लूटने और नुकसान पहुँचाने में तब्दील हो गया। इन जाट समर्थकों को गैर-जाट के संपत्तियों को लूटने और नुकसान पहुँचाने का अधिकार कैसे मिल गया? अगर किसी ने आरक्षण की मांग का विरोध किया भी तो इसमें गलत क्या था? क्या आरक्षण समाज को बाँटने का कार्य नहीं कर रहा? क्या आरक्षण समाज के दो समुदाय को एक दूसरे के विरुद्ध खड़ा होने के लिए मजबूर नहीं कर रहा?
जाट मुख्यतः पश्छिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा एवं राजस्थान में बसे हुए हैं और न सिर्फ सामाजिक बल्कि आर्थिक स्तर पर भी समृद्ध हैं। केंद्र सरकार की मध्यस्थता के बाद हरियाणा सरकार ने घोषणा कर दी कि जाटों को भी अन्य पिछड़े जाती का आरक्षण दिया जाएगा। नतीजतन अब दूसरे राज्य के जाट भी आरक्षण की मांग उठाने लगे हैं। भला एक ऐसा सुमदाय जो सामाजिक और आर्थिक रूप से संपन्न हो, उसे आरक्षण की सुविधा क्यों चाहिए? राजस्थान के गुर्जर जाति के लोग अन्य पिछड़ा जाति से निकलकर अनुसूचित जाति के सूचि में शामिल होना चाहते हैं। गुर्जरों ने पूर्व में दो-तीन बार अपने मांग के समर्थन में सड़क एवं रेल मार्ग को रोका था, परंतु किसी निजी या सरकारी संपत्ति को नुकसान नहीं पहुँचाया गया था। सर्वोच्च न्यायलय के दखल-अंदाजी के पश्चात, गुर्जरों को अपना विरोध वापस लेना पड़ा था।हरियाणा के जाटों ने रास्ता दिखा दिया है कि यदि अपनी मांगें मनवानी हो तो तोड़-फोड़, सरकारी एवं निजी संपत्ति को नुकसान पहुंचाकर सरकारों को मजबूर किया जा सकता है।


भारत की उन्नति में आरक्षण एक बहुत बड़ा बाधा बन गया है। मैं यह नहीं कहता कि सरकार आरक्षण को बिलकुल ख़त्म कर दे। लेकिन आरक्षण की व्यवस्था अगर वैध व्यक्ति को वांछित लाभ से वंचित रखता हो तो उस व्यवस्था पर पुनर्विचार अवश्य होना चाहिए। समय की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए आरक्षण नीति में भी बदलाव की आवश्यकता है। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति या पिछड़ा वर्ग, हर आरक्षण आर्थिक पैमाने में मिले ना कि सिर्फ सामाजिक पैमाने पर आधारित हो। अगड़ी जाति कहलाने वालों में भी ऐसे लाखों-करोड़ों लोग हैं जो आर्थिक रूप से इतने पिछड़े हैं कि पढाई की बात बहुत दूर उन्हें दो समय का खाना भी ढंग से नसीब नहीं होता। क्या लाभ नहीं मिलना चाहिए?


देश के सर्वोच्च तकनिकी शिक्षण संस्थानों जैसे IIT, NIT, AIIMS, इत्यादि में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं पिछड़े वर्ग के छात्रों को आरक्षण के बुते दाखिला मिल जाता है। ऐसे छात्रों की नींव कमजोर होने की वजह से अधिकतर छात्र उस माहौल में अपने को अक्षम पाते हैं और पढाई पूरा करने में असफल रहते हैं। आवश्यकता है आरक्षण देने से पहले बुनियादी शिक्षा को मजबूत करने की और आरक्षित श्रेणी के छात्रों को बुनियादी शिक्षा मुफ्त मुहैया करवाने की ताकि आरक्षित श्रेणी से आए हुए छात्र सामान्य वर्ग के मेधावी छात्रों के समकक्ष या उनके आसपास पहुँच सकें। किसी प्रकार ऐसे कमजोर छात्र इंजीनियर या डॉक्टर बन भी जाते हैं, तो समाज को उनका योगदान नहीं मिल पाता है। आरक्षण की सुविधा होने के बावजूद अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति या पिछड़े वर्ग से कितने ऐसे इंजीनियर, डॉक्टर या वैज्ञानिक निकले हैं जिनकी ख्याति राष्ट्रीय स्तर पर या विश्व स्तर पर रही है? विचारणीय है।

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2016

देश-द्रोही देश-भक्त पर भारी



               मेरा भारत महान!  क्या सचमुच हमारा देश भारत महान है? पिछले कुछ-एक महीनों से हमारे देश में तथाकथित धर्म-निर्पेक्ष बुद्धिजीवी नेताओँ (जिनमें अधिकतर अपने बड़बोलेपन के लिए जाने जाते हैं) ने भारत के चरित्र और सम्मान के चीथड़े उड़ा दिए हैं। कभी इनटॉलेरेंस के नाम पर, कभी गाय के मांस खाने के मुद्दे पर, कभी मुस्लिम समाज से जुड़े आतंकियों पर हुए कार्यवाई के विरोध में, कभी मंदिर के निर्माण के मुद्दे को लेकर और न जाने क्या-क्या। 
        इन सभी बुद्धिजीवी नेता वर्ग के ज्ञान और अज्ञानता को हवा देता हमारे देश के बीसीयों टीवी न्यूज़ चैनल। उन्हें भी क्या दोष दिया जाए, उनकी भी अपनी मज़बूरी है। उन्हें २४ घंटे अपने चैनल पर न्यूज़ दिखाना है और बाकी चैनलों से अपने आप को आगे भी रखना है। अब भला हर रोज़ भावपूर्ण, विवेकशील और विश्लेषक समाचार तो बन नही सकता। सो न्यूज़ चैनल वाले अपनी रोज़ी-रोटी चलाने के लिए हमारे महान भारत के महानतम राजनीतिक पार्टियों से एक प्रवक्ता पकड़ लेते हैं और पैनल चर्चा के नाम पर चालू हो जाता है अपनी-अपनी ज्ञान की व्याख्यान और विश्लेषण कौशलता का फूहड़ प्रदर्शन। इन न्यूज़ चैनलों पर चल रहे चर्चा को सुन रहे हर दूसरे भारतीय के मन में यही विचार आता होगा कि इन नेताओं को किन गधों ने वोट देकर संसद सदस्य चुन लिया। अगर इन नेताओं को विशेषाधिकार प्राप्त नही होता तो हर भारतीय उन्हें उनके गैर-जिम्मेदाराना एवं विवेकहीन वक्तव्य के लिए बीच सड़क पर खड़ाकर सरेआम गोली मार देता। 
         इस देश का दुर्भाग्य है कि हमारे देश में लालू प्रसाद यादव, शरद यादव, दिग्विजय सिंह, कपिल सिब्बल, सीताराम येचुरी, अखिलेश प्रताप सिंह, राहुल गांधी, सोनिया  गांधी, इत्यादि जैसे नेता शिखर पर विराजमान हैं और देश का तक़दीर लिखते हैं। इस देश में अगर एक मुस्लिम मर जाता है सभी राजनितिक पार्टियां अपने वैचारिक मतभेद को भुलाकर एकजुट हो जाती हैं और खुल जाता है सरकार के नीतियों और कार्य-कलाप की भर्त्सना का पिटारा। सभी राजनितिक दलों के नज़र के सामने कश्मीर घाटी में पाकिस्तान और ईसिस का झंडा फहराया और लहराया जाता है लेकिन आजतक इन तथाकथित धर्म-निर्पेक्ष बुद्धिजीवी नेताओं ने कभी नहीं कहा कि उन नागरिकों ने देश-विरोधी कार्य किया है और देश में कानून के मुताबिक उनके विरुद्ध करवाई करनी चाहिए।  
       राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली स्थित प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया में कुछ बुद्धिजीवी एकत्रित होते हैं और वहां अफज़ल गुरु (जिसे उच्चतम न्यायालय ने दोषी करार दिया था) को शहीद के रूप में सम्मानित किया जाता है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अफज़ल गुरु के सजा के विरोध में कुछ वाम-पंथी विचार-धारा से प्रभावित छात्र देश-द्रोही का नारा लगाते हैं, उन्ही छात्र संगठन का एक प्रतिनिधी एक अन्य न्यूज़ चैनल के पैनल चर्चा में सम्मिलित किया जाता है और उनके साथीयों द्वारा की गयी कार्यवाई को सही बताता है। हमारे धर्म-निर्पेक्ष कहे जानेवाले बुद्धिजीवी नेताओं में से किसी ने यह कहने की जहमत नहीं उठाई कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में घटी घटना देश-द्रोह के समतुल्य है। इस घटना पर किसी राजनितिक दल की प्रतिक्रिया नहीं आई कि देश के पाठ्यक्रम का भगवाकरण और विश्वविद्यालय प्रांगण को राजनीतिक लाभ के लिए क्यों उपयोग में लाया जा रहा है। कहते भी कैसे? आखिर एक देश-द्रोही व्यक्ति को सजा देने का विरोध जो हो रहा था और ऊपर से वो व्यक्ति मुस्लिम समुदाय से जुड़ा था। ऐसे में उन विध्यार्थियों के हरकत को गलत बताकर हमारे तथा-कथित धर्म-निर्पेक्ष नेता मुस्लिम समुदाय के वोट बैंक को खोने का जोखिम कैसे उठा सकते थे ?  
        इशरत जहां मामले में इन्हीं तथा-कथित धर्मं-निर्पेक्ष नेताओं ने गुजरात पुलिस को कटघरे में खड़ा कर दिया था। और अब जब लश्कर-ए-ताइबा के लिए कार्य करने वाला एक अमेरिकी नागरिक अदालत के सामने यह खुलासा करता है कि इशरत जहां भी एक आतंवादी थी और लश्कर-ए-ताइबा के लिए काम कर रही थी तो फिर से हमारे सम्मानीय तथा-कथित धर्म-निर्पेक्ष नेता एकजुट हो गए हैं और अदालत में दिए गए डेविड हेडली के बयान पर ही प्रश्न-चिन्ह खड़ा कर रहे हैं। कल से फिर से सभी न्यूज़ चैनल पर यही बहस छिड़ गई है कि पुलिस को एक आतंकवादी संगठन के लिए कार्य कर रहे आतंकवादी को मुठभेड़ में मारने का अधिकार नहीं है? इन तथाकथित धर्म-निर्पेक्ष बुद्धिजीवी नेताओं के अनुसार पुलिस को उसे जिंदा पकड़ना चाहिए था और देश का कानून उसे सजा देती। कल तो मुझे इन न्यूज़ चैनलों पर चल रही चर्चा और तथाकथित बुद्धिजीवि नेताओं के विचार सुनने के बाद अपने को भारत का नागरिक होने पर बेहद शर्म महसूस हो रहा था। कल प्रथम बार ऐसी अनुभूति हुई कि अगर मौका मिले तो हमें इस देश को छोड़कर किसी अन्य देश की नागरिकता ले लेनी चाहिए जहाँ कम-से-कम वहां के सम्मानीय नेता शिक्षित हैं और अपने देश के हित की बात तो करते हैं । 
         देश के सीमा की रक्षा करते हुए सियाचिन ग्लेशियर में हिम-स्खलन की वजह से भारतीय सेना के १० जवानों की मौत हो गई। कुदरत का करिश्मा देखिए उनमें से एक जवान छः दिन बाद ३५ फीट बर्फ के नीचे दबा हुआ जिंदा भी मिला लेकिन दो दिन बाद उसकी भी मौत हो गई। सभी न्यूज़ चैनेल ने लांस-नायक हनमंथप्पा के निधन के खबर को एक-दो मिनट का न्यूज़ क्लिपिंग दिखाकर अपने जिम्मेदारी पूरी कर ली। इसे विवेक-शून्यता कहें या संवेदन-हीनता, इन न्यूज़ चैनलों के पास इस भारतीय सेना के जवान के मौत से ज्यादा महत्वपूर्ण इशरत जहां का मुद्दा था। 
         किसी न्यूज़ चैनल ने इस मुद्दे पर चर्चा करना उचित नहीं समझा कि भारतीय सैनिक इतने ऊंचाई पर मुश्किल भरे वातावरण में सेवा देते हैं, उनके कार्य को आसान और उनके मुश्किलों को थोड़ा भी कम करने के लिए क्या कदम उठाये जा सकते हैं? सियाचिन में मारे गए इन भारतीय सैनकों को इन न्यूज़ चैनलों की सच्ची श्रद्धांजलि होती अगर उन्होंने इशरत जहां की जगह लांस नायक स्वर्गीय हनमंथप्पा पर हमारे तथाकथित धर्म-निर्पेक्ष बुद्धिजीवी नेताओं को आमंत्रित कर पैनेल चर्चा करते। 
      कुछ-एक नेताओं ने इस बहादुर जवान के पार्थिव शरीर पर माल्यापर्ण कर अपनी जिम्मेदारी निर्वाह कर ली और कुछ ने ट्वीटर पर अपने घड़ियाली आँसू बहा लिए। उस माँ का क्या हाल होगा जिसने अपने बेटे को खो दिया, उस पत्नी का क्या हाल होगा जिसने अपने पति को खो दिया, उस दो वर्ष के बच्ची का क्या हाल होगा जिसने अभी अपने पिता के गोद में ढंग से खेलना भी नहीं सीखा होगा? यह विचारतुल्य है कि क्या भारतीय समाज का ज़मीर इस कदर मर चूका है कि हमने इशरत जहां, अफजल गुरु जैसे देश-द्रोहीयों को लांस नायक हनमंथप्पा जैसे देश-भक्त पर भारी पड़ने की इजाजत दे दी है? यह भी विचरतुल्य है कि क्या सामाजिक सोच एवं व्यवस्था परिवर्तन का समय नहीं आ गया है?
       जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में ९ फरवरी से लेकर ११ फरवरी २०१६ तक घटित घटना भारतीय समाज को झकझोरने का काम कर सकती थी और हमें  सुप्तावस्था से बाहर लाने में भी कारगर साबित हो सकती थी। लेकिन हमारे नेताओं ने अपने राजनितिक स्वार्थपूर्ति हेतू इस कुकृत्य को भी सही ठहराया और दिल्ली पुलिस द्वारा विद्यार्थियों के विरुद्ध की गई कार्यवाई को ही गलत ठहरा दिया। छात्र नेता कन्हैया कुमार की गिरफ़्तारी को लेकर न सिर्फ दिल्ली में बल्कि पुरे देश में विरोध  जताया गया। हद की सारी सीमाएं तब तोड़ दी गयीं जब वामपंथी नेता श्री डी राजा की पुत्री भी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में उठे देश-विरोधी कार्यक्रम का हिस्सा बनी। श्री डी राजा टीवी चैनलों पर उसके बाद अपने और अपने परिवार को देशभक्त कहते पाये गए। श्री डी राजा एक ऐसे देशभक्त निकले जिन्हें देश से ज्यादा अपने पुत्री की गिरफ़्तारी का डर सता रहा था। श्री राजा ने बिना समय गंवाए गृह-मंत्री श्री राजनाथ सिंह से मुलाकात की और संभवतः अपने बेटी की गिरफ़्तारी को टालने में सफल भी हुए।  
       छात्र नेता कन्हैया कुमार के गिरफ़्तारी के बाद से फरार उमर खालिद और अनिर्बान भट्टाचार्य दस दिनों तक पुलिस की नज़रों से छिपते रहे। पूरा देश इस बात का गवाह रहा कि गिरफ़्तारी को गलत करार देने के मकसद से और गिरफ़्तारी से बचने हेतु उमर खालिद और उसके पिता ने मुस्लिम कार्ड तक खेल डाला और हमारे ही बीच उसके कई हितैषी निकल आए जिन्होंने इस पुरे घटना को सांप्रदायिक नजरिये से देखने और देश को दिखने की पुरजोर कोशिश की।  
          कभी-कभी सोचता हूँ कि अगर इस देश की उच्च न्यायालयों में अगर ईमानदारी नहीं होता तो भारत के सामान्य नागरीकों का क्या हश्र होता? वर्ना हमारे तथाकथित बुद्धिजीवी एवं धर्म-निर्पेक्ष नेताओं ने तो कोई भी कसर नहीं छोड़ी है इस देश के दूसरे बंटवारे करवाने से। दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा गिरफ़्तारी से अंतरिम सुरक्षा प्रदान करने से इंकार करने के उपरांत जवाहरलाल विश्वविद्यालय के छात्र एवं शिक्षक समुदाय के पास उमर खालिद एवं अनिर्बान भट्टाचार्य को दिल्ली पुलिस के समक्ष आत्मसमर्पण करने के अलावा कोई और राह नहीं बच गया था। यह कहा जा सकता है कि देर से ही सही लेकिन देश का क़ानून देश-द्रोहियों को काबू करने में सफल रहा। अब न्यायालयों को अपना कार्य निष्पक्ष होकर करना है ताकी हर किसी को इंसाफ मिल सके।