शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2015

तलवार (Talwar) - 15-16 मई की अनसुलझी गुत्थी

तलवार  (Talwar)

      जलवायु विहार, नोएडा निवासी डॉक्टर दंपति डॉ. राजेश तलवार और डॉ. नूपुर तलवार के पुत्री स्वर्गीय सुश्री आरुषी तलवार हत्याकांड पर बनी हिन्दी फिल्म "तलवार" को हाल ही में देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। सौभाग्य इसलिए कह रहा हूँ कि कई बार फिल्म देखने की सोचता हूँ लेकिन कभी घर की परेशानी, कभी ऑफिस से समय नही मिलने के कारण, तो कभी समय होते हुए भी थिएटर तक जाने की जहमत कौन उठाये (नजदीकि थिएटर भी मेरे घर से १० km दूर है) चौदह वर्षीय आरुषी की हत्या 15-16 मई 2008 की रात्री को उसके  घर पर कर दी गयी थी। 

आरुषी के माता-पिता श्रीमती नुपुर तलवार और श्री राजेश तलवार 
आरुषी के समर्थन में जनता द्वारा प्रदर्शन 
      साक्ष्य के अभाव में और शक के आधार पर माता-पिता को ही लाड़ली के मौत का जिम्मेदार ठहराया गया है। पहले उत्तर प्रदेश की पुलिस और बाद में केन्द्रीय अन्वेषन ब्यूरो (CBI) ने इस दोहरी हत्याकांड को अपने-अपने तरीके से अनुसंधान कर एक अंजाम देने की कोशिश की। जहां उत्तर प्रदेश की पुलिस ने निहायत ही अदक्ष (unprofessional) तरीके से अनुसंधान किया, वहीं CBI  ने भी अपनी अदक्षता को साबित कर दिया। उत्तर प्रदेश पुलिस ने इस दोहरे हत्याकांड की वजह "परिवार को कलंक से बचाने हेतु माता-पिता द्वारा किया गया वध - यानि Honour Killing" करार दिया। 

  
 नाट्य रूपांतरण - उत्तर प्रदेश पुलिस के अनुसंधान  करते अधिकारी
उत्तर प्रदेश पुलिस के मुखिया मीडिया के सामने honour killing का ऐलान करते हुए  

       CBI ने भी उत्तर प्रदेश पुलिस के तर्ज पर ही अपना अनुसंधान रिपोर्ट प्रस्तुत किया। उत्तर प्रदेश पुलिस ने जहां उनके समक्ष मौजूद सभी साक्षों को नजर-अंदाज़ कर अनुसंधान को बहुत ही गैर-जिम्मेदाराना तरीके से  अंजाम दिया, वहीं जब CBI को इस हत्याकांड की गुत्थी सुलझाने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई, तब तक उत्तर प्रदेश  पुलिस सभी साक्ष्यों का खात्मा कर  चुकी थी।
      बहुत कम लोगों को इस बात का ज्ञान होगा कि CBI में ही इस दोहरे हत्याकांड को लेकर दो विचार-धारा चले थे। एक अनुसंधान में जहाँ तलवार दंपति के क्लिनिक पर कार्य करने वाला  कृष्णा और उसके सहयोगी को दोषी पा रहा था, वहीँ दूसरे अनुसंधान में उन कर्मियों को बेकसूर माना गया और परिस्थिति साक्ष्य यानि circumstantial evidence के आधार पर तलवार दंपति को ही कातिल माना गया था। परंतु पुख्ता साक्ष्य के अभाव में और प्रथम अनुसंधान टीम के मत को ध्यान में रखकर CBI ने अदालत में केस को बंद करने की रिपोर्ट दाखिल करने का फैसला किया था।  
घटना-स्थल का नाट्य रूपांतरण
          तलवार दंपति अभी अपने पुत्री की मौत के सदमे से उभर भी नही पाये थे कि अदालत ने उन्हें उससे भी बड़ा सदमा दिया। अदालत ने CBI के closure report को संज्ञान लेने से इंकार करते हुए परिस्थिति साक्ष्य के आधार  पर तलवार दंपति  के खिलाफ ही हत्या का मुकदमा  चलाने का आदेश  कर  दिया। 


 नाट्य रूपांतरण अदालत के बाहर पत्रकार माता-पिता से सवाल करते हुए 


        कहते हैं "ईश्वर के घर देर है पर अंधेर नहीं"। परंतु डॉ दंपति के मामले में यह कहावत सत्य प्रतीत नहीं होती है। CBI को जब इस हत्याकांड की गुत्थी सुलझाने की जिम्मेदारी सौंपी गई, उस समय तक अधिकतर साक्ष्य नष्ट हो चुके थे। CBI के तत्कालीन निदेशक ने जिस अधिकारी (संयुक्त-निदेशक) को इस केस का जिम्मा दिया था उन्हें उसके अखंडता और काबिलियत का पूरा अंदाज और भरोसा था। फॉरेंसिक विज्ञान, नार्को-टेस्ट, घटना स्थल का बार-बार जांच, डॉ दंपति से पूछताछ और उनके नौकरों के घर की गहन छानबीन और उनसे पूछ-ताछ, वहां से प्राप्त हुए साक्ष्य जैसे कि खून से सने हुए कपडे, हत्या में  इस्तेमाल की गयी नेपाली खुर्की, इत्यादि की मदद से CBI की प्रथम  टीम ने असली  कातिल को ढूंढ निकाला था। 
 नाट्य रूपांतरण-नौकर के घर से मिला हत्या में प्रयोग किया गया खुर्की 
नाट्य रूपांतरण-CBI की प्रथम टीम द्वारा एक नौकर से पूछताछ जिसमें उसने स्वीकार किया कि उसने कृष्णा और उसके साथी को आरुषि के कमरे में क़त्ल के बाद देखा था
नाट्य रूपांतरण-CBI की प्रथम टीम द्वारा उत्तर प्रदेश पुलिस के आनुअंधान अधिकारी से पूछ-ताछ  करती हुई जिसमें उसने स्वीकार किया कि honour killing का theory उसने दबाव में आकर दिया था और अनुसंधान दौरान कई साक्षों को महत्व नहीँ दिया गया था। 
        शायद इसे डॉ दंपति का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि जब CBI ने इस केस को अपने आखरी मुकाम पर पहुंचा दिया  था, उसी समय CBI के निदेशक सेवानिवृत हुए। जब उनके स्थान पर प्रति-नियुक्त निदेशक के समक्ष सभी साक्षों एवं फॉरेंसिक रिपोर्ट को पेश किया गया, तो उन्होंने फॉरेंसिक रिपोर्ट को दुबारा सत्यापन करने का निर्देश दिया। 
नाट्य रूपांतरण-CBI के उच्च-पदस्थ नए अधिकारी (बीच में) के समक्ष प्रथम अनुसंधान टीम के मुखिया (बायेँ) और उनके अधीनस्थ अधिकारी (दायें)  
      प्रथम टीम के इसी अधिनस्थ अधिकारी को पदोन्नति का  प्रलोभन देकर फॉरेंसिक रिपोर्ट के सत्यापन के लिए फोरेंसिक लैब इस पत्र के साथ भेजा गया कि फॉरेंसिक लैब यह पुख्ता करे कि उनके पूर्व में भेजी गयी रिपोर्ट में कोई मुद्रण त्रुटि यानि typographical-error तो नहीं है। और जैसा CBI के नए निदेशक चाहते थे, फॉरेंसिक प्रयोगशाला ने लिखित रूप में दे दिया कि जो रिपोर्ट उन्होंने पहले भेजी थी उसमें मुद्रण त्रुटि यानि "typographical error" थी और गलत  रिपोर्ट भेजा गया था। CBI के नए निदेशक प्रथम अनुसंधान टीम के एक अहम सदस्य को पदोन्नति का प्रलोभन देकर अपने पक्ष में करने में सफल हो गए थे। उसी अधिनस्त अधिकारी को उपयोग कर उन्होंने ना सिर्फ प्रथम अनुसंधान टीम के मुखिया को गलत साबित कर दिया बल्कि उसके अनुसंधान को भी मानने से इंकार कर दिया। चूँकि वो CBI अधिकारी एक अखंडता और काबिलियत भरा अधिकारी था, ऐसा समझा जाता है कि उसने समय से पूर्व ही CBI से तबादला ले लिया।  
        प्रथम अनुसंधान टीम की रिपोर्ट को ख़ारिज करते हुए, प्रथम टीम के उसी अधिनस्थ अधिकारी की देख-रेख में एक दूसरी अनुसंधान टीम का गठन किया गया, जिसने अपने तरीके से जांच किए और अंत में उत्तर प्रदेश पुलिस के "honour killing" वाले बात को ही अपने तरीके से  जायज भी ठहराया ।  अदालत ने तलवार दंपति को अपने पुत्री की हत्या का दोषी करार देते हुए उन्हें आजीवन कारावास की सजा  सुनाई है। CBI एक उत्कृष्ट अनुसंधान संस्था है परंतु कई  मौकों पर निहित स्वार्थ-पूर्ति हेतू, उसके अनुसंधान भी  त्रुटिपूर्ण देखने को मिले हैं। 
 नाट्य रूपांतरण-सीबीआई की दुसरी अनुसन्धान टीम 
नाट्य रूपांतरण-अदालत के फैसले के बाद तलवार दंपति जेल जाते हुए 
         CBI के अंदर जो कुछ भी हुआ, ऐसा नही है कि वैसा सिर्फ CBI में ही होता है। इस तरह की बातें अनुसंधान संस्थाओं में बहुत आम हैं। CBI हो, राज्य पुलिस हो, केन्द्रीय सतर्कता आयोग हो, या उसके अधिनस्त केंद्र सरकार के मंत्रालयों / PSU के CVO's हों, सभी ख़ास मामलों में किसी अधिकारी / कर्मचारी / गुनहगार को अपने उच्च अधिकारीयों के निर्देश पर बचाते हुए देखे जा सकते हैं। उच्च अधिकारी भी उनकी आज्ञा का अनुपालन करने वाले अधिकारी(यों) को पदोन्नति या लाभ वाले पद पर पदस्थपना जैसे प्रलोभन देकर अपना कार्य करवा लेते हैं। अफ़सोस इस बात का  है कि  उच्च-पदस्थ अधिकारीयों की नापाक कमजोरियों का  नुकसान अखंडता और काबिलियत भरे उनके अधिनस्थ अधिकारीयों को और तलवार दंपति जैसे समाज में सभ्य एवं कमजोर लोगों को उठाना पड़ता है। उच्च-पदस्थ अधिकारी यही कहते सुने जाते हैं कि फलां अधिकारी ने ख़राब अनुसंधान किया है। कोई यह नही कहता कि अनुसंधान को उच्च पदस्थ अधिकारीयों ने प्रभावित किया है।  
         आज एक गलत निर्णय ने तलवार दंपति को अपने ही पुत्री का कातिल साबित कर दिया है। हो सकता है भविष्य  में तलवार दंपति उच्च अदालत से  इस आरोप से बरी हो जाएँ। लेकिन इन स्वार्थी और गैर-जिम्मेदार अधिकारीयों की नाकामियों की वजह से जो  तलवार दंपति के दामन पर सदैव के लिए दाग लग गया है, उसका भरपाई कौन करेगा? क्या इसकी कभी भरपाई हो पाएगी - यह एक बहुत बड़ा सवाल है!!!!!! !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!          



शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2015

मैं बेचारा चैटिंग के बोझ का मारा !!!!


चैटिंग 

           आज जब दुनिया तकनीकी कारणों से सिमटती जा रही है, लोग एक दूसरे से उतने ही दूर होते जा रहे हैं। एक वक्त था जब हम एक दूसरे से मिलने के लिए बेताब रहते थे और मिलने का कोई न कोई बहाना ढूंढते रहते थे। आज मोबाइल फोन ने  हमारा मिलना-जुलना एक तरीके से तक़रीबन ख़त्म कर दिया है।  चैटिंग मैसेंजरों ने फोन  कॉल्स की जगह लेनी शुरू कर दी और आज तो यह आलम है कि अगर फ़ोन पर बात करते हुए किसी का नंबर या कोई और व्यौरा मांग लें या लिखने को बोल दें, तो यही सुनने  को मिलता है "यार व्हाट्सऐप  कर देता हूँ या कर दे ना, लिख नहीं सकता"। व्हाट्सऐप जैसे चैटिंग ऎप ने तो हमारे प्राइवेसी को ही जैसे  ख़त्म कर दिया है। व्हाट्सऐप  मेसेंजर का विकास करते वक्त यह किसी ने नहीं सोचा होगा कि उनका ये ऎप लोगों के  प्राइवेसी को ही एक दिन ख़त्म कर देगा।









         

          हम व्हाट्सऐप जैसे ऐप पर इतना निर्भर हो चुके हैं कि हमारे रिश्तों की डोर भी अब व्हाट्सऐप के  उपयोग पर टिक गयी है। वैवाहिक जीवन भी इससे अछूता नहीं है। विवाहित हो या अविवाहित, बच्चे हों या जवान, अधेड़ उम्र हो या बूढ़े, सभी  व्हाट्सऐप पर व्यस्त देखे जा सकते हैं। समय का तो अब लोगों को जैसे ध्यान ही नहीं रहा। छोटे शहरों का तो मालूम नहीं लेकिन महानगरों में तो बुरा हाल है। बच्चे, जवान, बूढ़े सभी को, यहाँ तक की सड़क पार करते हुए भी, चैट करते देखा जा सकता है। इस बात की भी उन्हें ध्यान नहीं रहती कि उनकी जरा सी असावधानी की वजह से सड़क पर कोई बड़ा हादसा हो सकता है। उनके इस गैर-जिम्मेदार हरकत से उनकी या किसी और की जान जा सकती है या फिर किसी को घातक चोट पहुँच सकती है। वाहन-चालक हार्न बजाते रहते हैं लेकिन चैटिंग में मशगूल लोगों के ऊपर उसका कोई असर पड़ता हुआ नहीं दीखता। उल्टा वाहन-चालक को ही दोषी ठहरा दिया जाता है - देखकर नहीं चला सकते, अंधे हो क्या, वगैरह-वगैरह जूलमों से नवाज दिया जाता है। कई मौकों पर तो वाहन-चालकों को भी  वाहन चलाते वक्त मैसेज करते हुए  देखा जा सकता है।  
          



      हालात यूँ कि सड़क तो सड़क, अब घर के अंदर भी आप सुरक्षित नहीं हैं। अब तो  रातों को आराम से सोना भी दूभर होता जा रहा है।  घर में बच्चे हैं, वो अपने दोस्तों के साथ देर रात तक व्हाट्सऐप पर लगे  रहते हैं। पति-पत्नी के अपने  दोस्त हैं, अपने ग्रुप हैं।  अगर किसी एक को नींद नहीं आ रही होती है, तो समय का भी ध्यान रखने की आवश्यकता महसूस नही होती और  बस  मैसेज भेज  देते हैं, इस  उम्मीद  में कि अगर कोई ऊल्लू  उनकी तरह जाग रहा हो तो चैट करते हैं, समय कट जाएगा। उनका तो समय कट जाएगा, पर दूसरे का क्या ? इतना भी सोचने की जहमत नहीँ उठाते कि उनके चैटिंग की वजह से किसी दूसरे की नींद ख़राब हो सकती है। 



            अगर  पति अपने पत्नी को या फिर पत्नी अपने पति को देर रात तक चैट करने से मन करे, तो  वह दकियानूस, पुराने ख्यालों वाला, जुल्मी और  न जाने क्या-क्या विशेषताएं गिना दी जाती हैं। हालात ऐसे कि कोई यह समझने को राजी नहीं है कि उनके इस हरकत की वजह से दुसरों की नींद ख़राब होती  है। आप गहरी नीँद में सो रहे होते हैं और अचानक आपके फोन पर मैसेज नोटिफिकेशन्स आने शुरू हो जाते हैं। फोन की तुन-तुन या बीप की आवाज़ से  आपकी अच्छी-भली नींद खुल जाती है। आप किसी से यह आग्रह करें कि देर रात को मैसेज न करे इससे नीँद में व्यवधान पड़ता है, तो उल्टा आपको नसीहत दे दी जाती है कि आपके फोन में "Mute" की सुविधा है, आप अपना फोन "Mute" कर दिजिए या फिर आप ग्रुप छोड़ सकते हैं। यानि हम तो मैसेज करेंगे, अगर आपको तकलीफ हो रही है तो यह आपकी परेशानी है  और आप खुद इसका निदान ढूँढिये। 
     मुश्किल यह है कि आजकल इस तरह के गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार शिक्षित वर्ग के लोग कर रहे हैं। उन्हें समझाना भी मुश्किल है क्योंकि उन्हें लगता है कि वो तो पढ़े-लिखे  हैं और  वो कैसे गलत  हो सकते / सकती हैं। और अगर शिक्षित व्यक्ति अपना दिमाग का दरवाजा बंद कर दे, फिर तो भगवान भी उसके सामने घुटने टेक दे आम इंसान की क्या विसात । 
        मोबाइल फोन के आने के बाद से तो वैसे ही लोगों में दूरियां बढ़ने लगी थीं और मिलने-जुलने को फोन पर वार्तालाप ने जगह ले लिया था।  अब जब से चैटिंग प्रचलन में आया है लोग अब चैटिंग के जरिये ही जुड़े रहना पसंद करने लगे हैं।  हमारा सामाजिक  दायरा और भी सिकुड़ता जा  रहा है।





सोमवार, 5 अक्तूबर 2015

यात्रा - एक संस्मरण


यात्रा 

भाग -2 

         सुरक्षा के दृष्टि से भारत के कुछ पर्यटन स्थल जैसे कश्मीर (आतंकी  छोड़कर), लद्दाख, हिमाचल के सुदूर इलाके, उत्तर-पूर्व राज्यों को विदेशी शैलानी ज्यादा सुरक्षित महसूस करते हैं और वहां वह अकेले भ्रमण के लिए निर्भय चले जाते हैं। अगर हम इन राज्यों में चले जाएं तो हमें कई सारे विदेशी शैलानियाँ साइकिल पर यात्रा करते दिख जाते हैं. साइकिल से यात्रा करने के अनेक फायदे हैं - धन की बचत, स्वाथ्य लाभ, प्रकृति और आसपास की सुंदरता को ज़्यादा भली-भाँति महसूस करना, साइकिल द्वारा ऐसे राह / मार्ग पर पहुँचा जा सकता है जहाँ वाहन का पहुँच पाना मुश्किल है, इत्यादि। साइकिल द्वारा पर्यटक स्थलों का भ्रमण और साइकिल द्वारा भारत दर्शन जहाँ विदेशी शैलानियों में अत्यंत प्रचलित है, वहीँ स्वदेशी शैलानियों में पर्यटन का यह तरीका अभी आम प्रचलन में नहीं आया है। कुछ हिंदुस्तानी नौजवानों को साइकिल पर भ्रमण करते देखा जा सकता है, वहीँ विदेशी शैलानियों में हर उम्र के लोगों को साइकिल से भ्रमण करते हुए देखा जा सकता है। अभी हाल ही में मैंने एक विदेशी महिला, जिनकी उम्र तक़रीबन ५५ वर्ष होगी, को मनाली-लेह जैसे कठिन एवं दुर्गम मार्ग पर साइकिल से पर्यटन करते पाया। उनके और उनके साथी सैलानी में तक़रीबन एक किलोमीटर का फासला था। विदेशी शैलानियों की तर्ज पर अब  हिन्दुस्तानियों में भी सुदूर एवं दुर्गम मार्गों पर पर्यटन  के लिए साइकिल धीरे-धीरे  प्रचलित होने लगा है।  
      इसी वर्ष अगस्त-सितम्बर माह में मैं पर्यटन हेतु सड़क मार्ग से दिल्ली से निकलकर श्रीनगर, लद्दाख, मनाली होता हुआ दिल्ली वापस आया था। अपने ११ दिवसीय यात्रा के दौरान  मैंने श्रीनगर-लेह राजमार्ग और लेह-मनाली राजमार्ग पर स्वदेशी एवं विदेशी शैलानीयों को साइकिल द्वारा इन दुर्गम पहाड़ी रास्तों को पार करते पाया।  यह अलग बात थी कि साइकिल सवार शैलानियों में स्वदेशी-विदेशी शैलानी २०:८० के अनुपात में दिखे। जहाँ स्वदेशी शैलानियों में मुझे सिर्फ पुरुष दिखे (उम्र २५-३० वर्ष), वहीँ विदेशी शैलानियों में १८-५५ वर्ष के बच्चे और महिलाएं भी थीं। एक और बड़ा अंतर जो इन शैलानियों में देखने  को मिला वो यह था कि जहाँ विदेशी शैलानीयों का सारा आवश्यक सामान जैसे कपडे, खाने-पीने के वस्तु,  टेंट, वगैरह उनके साइकिल पर ही  देखा जा सकता था, वहीँ साइकिल सवार नौजवान भारतीय शैलानियों का सारा सामान  उनके साथ चल रहे एक अलग वाहन पर था। कहने का तात्पर्य यह है कि हम कहने को साइकिल पर सवार तो हुए हैं लेकिन अपने आराम का भी साधन  साथ लिए चल रहे  हैं.      

          

       विदेशी शैलानी का एक ऐसा ही चार सदस्यों का समूह (जिसमें १८ वर्ष का एक बच्चा, तक़रीबन ३७-३८ वर्ष की एक महिला और तक़रीबन ४० वर्ष के दो पुरुष थे) मुझे लद्दाख के एक सुदूर एवं सुनसान सड़क पर मिले। उनसे वार्तालाप से ज्ञात हुआ कि चारों व्यक्ति स्पेन के रहने वाले हैं और छह माह के लिए साइकिल द्वारा पर्यटन हेतु  अपने देश से निकले हुए हैं. वो तीन माह के लिए भारत में रहने वाले हैं और इस दौरान श्रीनगर, लद्दाख, हिमाचल, सिक्किम घूमने के पश्चात उनका नेपाल जाने का इरादा है. 

       क्या हम हिंदुस्तानी इन विदेशी शैलानियों की भांति पर्यटन कर सकते हैं? कहने का तात्पर्य यह  है  कि  इच्छा रखते हुए  भी हम भारतीय इन विदेशी शैलानियों की भांति एक साथ छह माह का पर्यटन का कल्पना भी नहीं कर सकते। आम हिंदुस्तानी के पास ना तो इतना सामर्थ्य है और अगर सामर्थ्य है भी तो एक साथ इतनी लंबा अवकाश मिलने की संभावना  नगण्य है।साथ ही हमारी सामाजिक संरचना भी ऐसी है कि हम हिंदुस्तानी सिर्फ पर्यटन हेतु इतने लंबे वक्त तक अपने पारीवारिक  आवश्यकताओं को नजरअंदाज भी नहीं कर  सकते।       

      

क्रमशः 

   

गुरुवार, 1 अक्तूबर 2015

यात्रा - एक संस्मरण

यात्रा  

 भाग-1


भारत के किसी पर्यटक स्थल पर चलें जाएँ, स्वदेशी पर्यटकों को प्रायः अपने परिवार के साथ या दोस्तों के परिवार के साथ या फिर दोस्तों की टोली के साथ  पर्यटन करते पाते हैं। हिंदुस्तानी महिला तो दूर, हिंदुस्तानी पुरुष को भी किसी पर्यटन स्थल पर अकेला पर्यटन के उद्देश्य से नहीं देखा जा सकता। इसके लिए शायद हम हिंदुस्तानियों की मानसिकता जिम्मेदार है। हमारे अंदर जो बचपन से एक असुरक्षा की भावना बैठा दी गयी है, वो भी कहीं न कहीं इसके लिए जिम्मेदार है।
  
अगर हम विदेशी शैलानियों को देखे, तो उनमें हमें कई ऐसे शैलानी (महिला और पुरुष दोनों) मिल जाएंगे जो अपने देश से भारत भ्रमण के लिए अकेला आए हुए होते हैं और हमारे देश को कहीं हमसे ज्यादा जानते हैं। मूलतः इसका कारण उनका पालन पोषण का तरीका, वयस्क की उम्र प्राप्त करते ही अपने  ऊपर आश्रित होना और अपने भले-बुरे का फैसला खुद लेना भी हो सकता है।  इसके बिलकुल विपरीत हम भारतीय माता-पिता अपने बच्चों को हर कदम पर उन्हे टोकना और शिक्षा देने में अपनी बड़प्पन समझते हैं।  हमें शायद लगता है कि हम जो कह या कर रहे हैं वो ही सही है।  हमारे बच्चे जो सोचते, समझते या करना चाहते हैं, माता-पिता की नजरों में वयस्क होते हुए भी उसके लिए वो परिपक्व नहीं समझे जाते हैं। नतीजतन, हम भारतीय अपने बच्चों को कभी  आत्म-निर्भर होने ही नही देते। और जो कुछ बच्चे अपने बल-बूते और समझ से आत्म-निर्भर हो जाते हैं या होना चाहते हैं, उन्हें  हम प्रायः कई सारे विशेषणों से सुशोभित  कर देते हैं जैसे उद्दंड, अपने मन का करने वाला, माता-पिता की बात नहीं सुनने  वाला, इत्यादि। 

इस प्रकार के व्यवहार के लिए शायद हम माता-पिता को भी दोषी नहीं ठहरा सकते क्योंकि उन्होने अपने जीवन काल में अपने इर्द-गिर्द जो हालात देखे हैं, उसकी वजह से उनमें एक असुरक्षा की भावना पैठ बना लेती है और वो नहीं चाहते कि जिस बच्चे को उन्होने इतने लाड़-प्यार से पाल-पोषकर बड़ा किया है, उसके साथ कुछ अनहोनी हो जाए और वो बच्चे के सुख से वंचित हो जाएँ। इसके लिए भारतीय सामाजिक संरचना को भी  जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, जहां हर माता-पिता अपने बच्चे में अपने बुढ़ापे का सहारा देखता है और इसी कुंठा में जीता रहता है कि कहीं उसका बच्चा उससे दूर न हो जाए। उनके बुढ़ापे में उनका कौन ख्याल रखेगा? हालांकि समय के साथ और नयी पीढ़ी की सोच ने अब धीरे-धीरे पुराने विचारों को दरकिनार करना शुरू कर  दिया है।  आजकल के बच्चे अब जल्दी आत्मा-निर्भर होने लगे  हैं और खुद से हर छोटे-बड़े निर्णय भी लेने लगे हैं, भले ही  उनके माता-पिता इस बात का बुरा माने। संभव है उनमें से कुछ निर्णय गलत भी हों। अगर देखा जाए तो एक तरीके से यह सही भी है। कब तक हम अपने  विचारों को नाय पीढ़ी पर थोपते रहेंगे। उन्हे अपने तरीके से जीने देना ही उचित है। और शायद तभी वो सही-गलत  निर्णय का तुलनात्मक समीक्षा भी कर पाएंगे। 

  विदेशों में माता-पिता अपने बच्चों की परवरिश कभी इस भावना के साथ नहीं करते कि  उनका बच्चा ही उनके बुढ़ापे का सहारा बनेगा। मूलतः उन देशों की सामाजिक संरचना और उन सरकारों  द्वारा चलाई जा रही सामाजिक सुरक्षा योजनाएँ, उन बच्चों को आत्म-निर्भर बनाने एवं उनके माता-पिता को अपने बच्चों को उन्मुक्त रहने के लिए प्रेरणा देता है। और शायद यही एक महत्वपूर्ण वजह है स्वदेशी पर्यटक और वेदेशी  पर्यटक के भ्रमण के तौर-तरीके में। 

जहां हम स्वदेशी पर्यटक आम पर्यटन स्थलों पर घूमना पसंद करते हैं इसके ठीक विपरीत विदेशी पर्यटक किसी सुदूर और एकांत इलाके में भी घूमना पसंद करते हैं। स्वदेशी पर्यटक किसी भी प्रकार की असुविधा के ख्याल से ही घबरा जाते हैं, जबकि विदेशी शैलनियों को असुरक्षा और असुविधा कभी उन्हें अपने  मकसद (भ्रमण) से विचलित नहीं होने देती। विदेशी शैलनीयों को सड़क किनारे एक छोटे से टेंट में रात गुजारते देखा जा सकता है। हम खुद अपने देश का नागरिक होकर भी रात को टेंट में गुजारने का कल्पना भी नहीं कर सकते। सड़क किनारे रात गुजारने के विचार मात्र से हमारे अंदर किसी अनहोनी का विचार उत्पन्न होने लगता है मानो सारी कायनाथ हमारे साथ अनहोनी करने के लिए ही इंतज़ार कर रही हो। नतीजतन हम  स्वदेशी शैलानी एक आरामदायक और बंद कमरे की तलाश में रहते हैं और पर्यटन का   आनंद उस स्तर का नहीं ले पाते जो यह विदेशी शैलानी ले लेते हैं।    

           क्रमशः