बुधवार, 22 जून 2016

मृगतृष्णा

समाज परिवर्तनशील है। तक़रीबन २०-२५ वर्ष पूर्व तक भारतीय समाज दो तबके में बंटा हुआ था - एक तबका नौकरी पेशा का था और दूसरा तबका निजी व्यवसाय का। जहाँ सरकारी क्षेत्र की नौकरी में कम वेतन परंतु स्थिरता थी, वहीँ निजी क्षेत्र में अधिक वेतन लेकिन स्थिरता की कमी थी। एक छोटे से गलती के लिए भी नौकरी से निकाला जा सकता था। सरकारी क्षेत्र में नौकरी के अवसर कम होते गए और निजी क्षेत्र में नए-नए व्यवसाय आने से अवसर बढ़ते गए। दोनों क्षेत्रों में वेतन में असमानता पहले भी थी, आज भी हैं और भविष्य में भी रहेंगे। 
एक वक्त था जब निजी व्यवसाय करने वाले नौकरी पेशा में लगे लोगों को अपने से कम आँका करते थे। निजी व्यवसाय में लगे व्यक्तियों को लगता था कि समाज में नौकरी करने वालों की तुलना में उनका स्थान उच्च है। उनकी आय नौकरी करने वालों से अधिक थी। निजी व्यवसाय करने वालों के बच्चे बाप-दादा द्वारा चलाये जा रहे व्यवसाय को ही आगे बढ़ाने में लग जाते थे। नौकरी करना उनके प्रतिष्ठा के खिलाफ था। निजी व्यवसाय वाले अपने बच्चों की शादी भी निजी व्यवसाय में लगे परिवार में ही करना पसंद करते थे। उन्हें लगता था कि उनके बच्चों को नौकरी वाले वो सभी सुख नहीं दे सकते जो निजी व्यवसाय वाले दे सकते हैं। जो नौकरी करते थे वो निजी व्यवसाय वालों की तरफ टक-टकी लगाए रखते थे और सोचा करते थे कि भगवान ने क्या किस्मत दी है इन्हें। दोनों तबकों को दूसरे पक्ष की तरफ हरियाली अधिक नज़र आती थी ।  
समय बदला, सामाजिक संरचना में परिवर्तन हुए, सरकारी नियम-कानून में परिवर्तन हुए, बड़े-बड़े औद्योगिक घराने बाजार में आ गए। लघु स्तर के निजी व्यवसाय में लगे लोगों के आमदनी पर इन सबका असर पड़ा। नौकरी करने वालों को हेय दृष्टि से देखने वाले अब नौकरी वालों को सम्मान से देखने लगे। निजी व्यवसाय वालों का भी अब यही प्रयास रहने लगा कि उनके बच्चे भी नौकरी करें और सरकारी नौकरी ही करें। उन्होंने अपने बच्चों की शादियां भी नौकरी करने वालों के साथ शुरू कर दिया।
मेरे भी पहचान में कई लोग हैं जिन्होंने अपना निजी व्यवसाय लगा रखी हैं और तक़रीबन ३-४ करोड़ रूपये का वार्षिक टर्नओवर भी है। उनमें से अधिकतर ने अपने बच्चों को तकनिकी अथवा व्यावसायिक शिक्षा दिलाई है। उनका भी यही धारणा है कि उनके बच्चे शिक्षा पूर्ण करने के उपरांत नौकरी करें। 
उन सभी को यही लगता है कि सिर्फ वेतन भोगी ही अपनी आय से संतुष्ट हैं। उसका एक बड़ा कारण यह हो सकता है कि वेतन भोगियों को अपने आमदनी का अंदाजा होता है और इस कारण वेतन भोगी अपने खर्चे भी अपने आमदनी के अनुसार ही रखते हैं। आज वेतन भोगियों की आय भी एक सम्मानीय स्तर तक जा पहुंची है और कुछ उच्च पदों पर निजी क्षेत्र में पदस्थापित अधिकारीयों की आय तो आठ अंकों तक जा पहुंची है।    
सरकारी क्षेत्र में नौकरी के अवसर तो पहले ही काम होने लगे थे। निश्चित आय एवं स्थिरता जैसे कारणों से सरकारी नौकरियों में आरक्षण के बढ़ते दबाव के कारण सरकारी क्षेत्र में अब अवसर काफी कम हो गए हैं। निजी क्षेत्र में भी इसका असर पड़ा है। वहां भी रोजगार के अवसर धीमी हो गए हैं।  
कहते हैं न पैसा अपने साथ बुरी आदतों को भी साथ लेकर आता है। लोगों के आमदनी तो बढे लेकिन आर्थिक अनुशासनहीनता भी बढ़ते गए। हम विलासिता के सभी साधन जुटाने की होड़ में लग गए। आर्थिक उदारता की वजह से रोज-मर्रा के सभी सामान आसान किस्तों में और ऋण सुविधा से उपलब्ध हो गए।  हमने पहले एक घर ख़रीदा, फिर दो किये और अब तो ये आलम है कि कुछ ने तो तीन-तीन घर खरीद चुके हैं। नौकरी पेशा वाले जो एक समय में अपने को संतुष्ट महसूस करते थे आज ऋण के बोझ से दबे हुए हैं। घर के लिए ऋण, गाड़ी के लिए ऋण, ए सी के लिए ऋण, छुट्टियों में घूमने के लिए ऋण, बच्चों की शिक्षा के लिए ऋण। आय और खर्च के बीच का संतुलन डगमगाने लगा है। वही तबका जो एक वक्त अपने निश्चित आय के कारण प्रतिष्ठित एवं सम्मानीय माना जाने लगा था, आज वही तबका अपने अनुशासनहीनता एवं लोलुपता की वजह से हाशिये पर खड़ा है। 
हमने असंतुष्टि का पैमाना बदल दिया है। "हमारे पास क्या नहीं है" हम उससे असंतुष्ट नहीं हैं। "हमारे पड़ोसी और दोस्त के पास क्या है" हम उसकी वजह से ज्यादा असंतुष्ट हैं ? हम उन्हें देखकर संतुष्ट नहीं होते जो हमसे कम भाग्यशाली हैं या जो हमसे कम समृद्ध हैं। इसके लिए हम ईश्वर को आभार  प्रकट नहीं करते कि आपने हमें वो सब कुछ दिया है जो अनेकों के पास नहीं है। परन्तु हम यह शिकायत जरूर रखते हैं कि ईश्वर ने हमारे साथ ही ऐसा क्यों किया? हमें उनके जैसा सामर्थ्य क्यों नहीं बनाया? हमें वो सारी सुविधाएँ क्यों नहीं दी जो हमारे पडोसी के यहाँ उपलब्ध है?
हम यह भूल गए हैं कि मनुष्य जीवन एक यात्रा है। यह पुर्नत: हम पर निर्भर करता है कि इस यात्रा को हसीन और यादगार बनाई जाए या दूसरों से तुलना कर उसे नकारात्मक भावनाओं से भर दिया जाए। यात्रा का भरपूर आनंद हम तभी ले सकते हैं जब हम यात्रा पर कम से कम सामान और साधन के साथ निकलें। यात्रा के दौरान हमारा मकसद सफर का आनंद लेना होना चाहिए ना कि अपने सामान और संसाधनों की रक्षा करने में समय गँवाना। हम वर्तमान के खुशियों को छोड़कर, अपने सुख के लिए सांसारिक एवं भौतिक संसाधनों को इकठ्ठा करने की होड़ में लग गए हैं। इन सब के लिए कहीं न कहीं हमारे परिवार का हर सदस्य जिम्मेदार होता है।   
हमें दूसरों से तुलना करने की आदत सी हो गयी है। हमें हमेशा यही लगता है कि जिंदगी के सारे मौज-मस्ती सिर्फ धनाढ्य लोग ही करते हैं। जबकी सच्चाई इससे कोसो दूर है। जब हमारे पास धन-सम्पति बढ़ने लगती है तो फिर हम और अधिक अर्जन करने की होड़ में लग जाते हैं। नतीजतन मन की शांति कम हो जाती है, रातों की नींद कम हो जाती है, नींद के लिए दवाईयां लेनी पड़ती है, वगैरह वगैरह। धन-संपति उस मृगतृष्णा के समान है जिसके समीप पहुँचते ही वह उतना ही दूर हो जाता है और फिर से हम उसके समीप पहुँचने की कोशिश में लग जाते हैं ।   

बुधवार, 9 मार्च 2016

महिला दिवस और हम


8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाया गया। भारत में भी इसे बड़े धूम-धाम के साथ मनाया गया।  हमारे कार्यालय में भी कल इसका आयोजन किया गया जिसमें खाने-पिने, नाच-गाने, नाट्य प्रस्तुति का आयोजन किया गया था।। साथी महिलाओं एवं अन्य कार्यालाओं में कार्य करने वाली महिलाओं के पहनावे और उनके हाव-भाव को देखकर यही लग रहा था कि  कोई भी महिला इस मौके को अपने हाथ से जाने नही देना चाहती थी। सभी में होड़ लगी थी कि कौन सबसे सुन्दर और आकर्षक दिख रही है और किसे सबसे अधिक मुबारकबाद या अभिनदंन प्राप्त होता है। ऐसी अनुभूति होनी स्वाभाविक भी है क्योंकि कल महिलाओं के लिए विशेष दिन था जो खास तौर पर उनके लिए नामित किया गया है। 

हमारे कार्यालय के सभी महिला (परइ कार्यालय में तक़रीबन 70 महिलाएँ होंगी) जो वर्ष के ३०० कार्यदिवस में शर्ट-पैंट, सलवार-कुर्ता या जींस पहन कर आती थीं, कल जब मैंने उन्हें भारतीय संस्कृति एवं परंपरा के अनुरूप साड़ी में देखा तो पहले तो समझ ही नहीं आया कि आखिर माजरा क्या है। भला सभी महिला एक साथ साड़ी क्यों पहन कर आई हैं? फिर अचानक ध्यान हुआ कि आज तो महिला दिवस है और उसी का खुमार इन महिलाओं पर नजर आ रहा है।  

हमारे अध्यक्ष महोदय एवं अन्य वरिष्ठ अधिकारीयों ने भी इन महिलाओं को संबोधित किया और उनके उत्थान एवं शशक्तिकरण के लिए और क्या किया जा सकता है उस पर अपना विचार व्यक्त किया। जिन महिलाओं को महीने के 60 हज़ार से लेकर 2 लाख रूपये तक की तनख्वाह मिल रही हो, जो महिलाएं पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर नौकरी में पदोन्नति की होड़ में लगी हुई हों, जिन महिलाओं को पुरष कर्मचारियों के समतुल्य वेतन मिल रहा रहा हो, भला उन्हें और कितना शशक्तिकरण की आवश्यकता है? हाँ, लेकिन जब शहर से बाहर कार्यालय के कार्य से टूर पर जाने की बात होती है या दूसरे कार्यालय में हस्तांतरण की बात उठती है, तो यही महिला इस बात की दुहाई देने लगती हैं कि वो तो महिला हैं, भला उन्हें क्यों यह सब करने के लिए कहा जा रहा है? किसी संगोष्ठी या प्रशिक्षण में भाषण देने की बारी आती है तो उस समय यही महिला बराबरी की बात करती हैं। आखरी ऐसा दोहरा मापदंड क्यों?

आज के परिवेश में भारत में महिला की स्थिति एवं उनके शशक्तिकरण के ऊपर टीवी, पांच सितारा होटलों में, महिला संगठनों ने कई सारे परिचर्चा रखे। अधिकतर ने यही कहा कि महिला ही महिला की दुश्मन हैँ, उनके पिछड़ापन के लिए महिला दोषी हैं। कुछ-एक ने तो महिलाओं के पिछड़ापन का कारण सालों-साल से संसद में महिला आरक्षण बिल को लटके रहने को ही बता दिया और उनके मुताबिक इस पिछड़ेपन को दूर आरक्षण देकर ही किया जा सकता है। संविधान में कुछ जाती विशेष के लोगों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है। आरक्षण लागु होने के 66 वर्षों बाद भी क्या हम उन जाती विशेष लोगों का पिछड़ापन दूर करने में सफल हो पाये हैं? मेरा तो उत्तर नहीं है, हो सकता है आपका विचार मुझसे भिन्न हो! भारत में हम हर कार्य का समाधान आरक्षण में ही क्यों ढूंढते हैं? 

अगर सही मायने में उत्थान एवं शशक्तिकरण करनी हैं तो महिलाओं में शिक्षा के स्तर को बढ़ाने की आवश्यकता है। उन्हें शिक्षित कर उनके लिए रोजगार के अवसर प्रदान करने की आवश्यकता है। उनके लिए घर-घर में शौचालय, पिने का साफ़ पानी एवं खान-पान में सुधार लाने की आवश्यकता है। 

हम अधिकतर ऐसे परिचर्चाओं में यह जरूर सुनते हैं कि महिलाओं का शारीरिक शोषण किया जाता है और पुरुष महिलाओं को भोग-विलास का साधन समझते हैं। मैं नहीं कहता कि इस बात में कोई अतिश्योक्ति है। परन्तु अब महिलाओं को भी अपनी धरना बदलने की आवश्यकता है। मैं रोज Delhi  Metro से 70 km यात्रा करता हूँ और सफर के दौरान कितने ही प्रकार के मुशफ़िरों को देखने और मिलने का अवसर प्राप्त होता है।भीड़-भाड़ वाले मेट्रो में ढंग से खड़े होने की भी जगह भी नहीं मिलती। उन मुशाफ़िरों में से स्कूल-कॉलेज के विद्यार्थी भी होते हैं जो अधिकतर लड़के-लड़कियों के जोड़े के रूप में देखे जा सकते हैं।  तक़रीबन हर रोज किसी न किसी ऐसे जोड़े से आप टकरा जायेंगे जो एक दूसरे के शरीर से खेलते रहते हैं, कभी लड़का लड़की का गाल छूता है, कभी उसके कमर में हाथ डालता है, कभी उसके जाँघों पर हाथ फेरता है, तो कभी लड़की लड़के के गाल चूमती है, उसके कमर में हाथ रखती है और न जाने क्या-क्या। अब यहाँ कौन किसकी शोषण कर रहा है? यहाँ तो औरत भी उस विलाषिता में स्वतः बराबर की भागीदारी बनती है। इन नौजवानों में शादी से पूर्व शारीरिक संबंध बना लेना और नित्य बनाये रखना बहुत ही आम बात हो चला है और जो शादी से पूर्व यह सब नहीं करना चाहते, उन्हें हीन भावना से देखा जाता है और पिछड़ा समझा जाता है। 

मैं अपने को पारिवारिक वृक्ष का आखरी पीढी मानता हूँ जहाँ हिंदू धर्म के विचार एवं भारतीय संस्कृति को महत्व दिया जाता है। समाज में आ रहे परिवर्तन एवं वैचारिक मतभेद का शिकार मैं भी हुआ हूँ। भारत में Valentine Day का बोलबाला बढ़ा है। आज की पीढ़ी को नक़ल करती उम्रदराज बीबियाँ, मासा-अल्लाह। भले ही Valentine का सही मतलब नहीं समझती हैं लेकिन Valentine Week में परपुरुष द्वारा ऑफर किया गया chocolate पर ऐतराज जाहिर करने पर पति को शक्की, संकीर्ण सोच वाला तगमा देने में पीछे नहीं रहती। भला कौन पति इस बात की इजाजत देगा कि Valentine Week में कोई पत्नी का Facebook फ्रेंड उसके पत्नी को Chocolate ऑफर करे? क्या शादी-शुदा महिलाओं द्वारा ऐसा व्यवहार सामाजिक मानक के अनुरूप है? हिंदू धर्म में शादी के पश्चात माँग में रोजाना सिंदुर भरना एक परंपरा है, एक प्रथा है, जो संकेत करता है कि महिला शादी-शुदा है। मेरा व्यक्तिगत अनुभव कहता है कि सिंदूर भरा माँग देखकर लोगों में ऐसी महिलाओं के प्रति नजरिया बदल जाता है। परंतु समय के साथ इस परंपरा / प्रथा का पतन शुरू हो चूका है। आलम यह है कि मुझे तो अब अपनी पत्नी के माँग में सिंदूर ढूँढना पड़ता है और अथक प्रयास के बाद भी सिंदूर का एक कतरा नजर नहीं आता है। शुरू में मैंने सिंदूर नहीं भरने पर विरोध जताया था परंतु अब मैंने उसके सुनी मांग को देखना अपना नियति मान लिया है। 

घर में महिला अपनी प्रभुत्व बनाये रखे, इसके लिए बच्चों के मन में पिता के प्रति द्वेष उत्पन्न करना ताकी बच्चे पिता से बात ना करें और सिर्फ अपनी माँ की सुनें। और यह सिर्फ एक घर की बात नही है, हर दूसरे-तीसरे घर में ऐसा व्यवहार देखा और सुना जा सकता है। भला यह किस प्रकार का शशक्तिकरण है? हम शशक्तिकरण की बात तो करते हैं लेकिन महिलाओं में पैठ करती वैचारिक पतन की बात क्यों नहीं करते? 

नोट: उपरोक्त विचार पूर्णतः मेरे व्यक्तिगत राय हैं और किसी वर्ग / समुदाय या व्यक्तिविशेष के भावनाओं को ठेश पहुँचाने के मकसद से नहीं व्यक्त किये गए हैं।  
  
     

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2016

जातीगत आरक्षण : वरदान या अभिषाप


भारत का संविधान हमें समान रूप से स्वतंत्रता प्रदान करता है और यह भारत सरकार की ज़िम्मेदारी बनती है कि वो इस बात का खयाल रखे कि समाज के सभी तबके को समान अधिकार मिले। संविधान निर्माताओं ने आरक्षण के जरिये समाज के कमजोर एवं पिछड़े तबके को समान अधिकार देने की कल्पना की थी। संविधान में १० वर्ष पश्चात आरक्षण के समीक्षा की बात कही गयी थी। आज संविधान के लागु होने के तक़रीबन ६५ वर्ष बीत जाने के बाद, आरक्षण ने समाज में समानता की जगह असामनता को बढ़ावा दिया है।

आरक्षण के प्रावधान ने आज भारतीय समाज को तीन ध्रुव में विभाजित कर दिया है। एक ध्रुव वैसे लोगों का है जिन्हें आरक्षण में मिली सुविधा से संतुष्ट हैं (जैसे अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जाति, इन्हें २२.५% आरक्षण उपलब्ध है); दूसरे ध्रुव में वैसे लोग हैं जिन्हें आरक्षण में मिली सुविधा से संतुष्ट नहीं हैं (२७% आरक्षण प्राप्त अन्य पिछड़ी जाति में सम्मिलित लोग); तीसरा ध्रुव ऐसे लोगों का है जिन्हे आरक्षण की कोई सुविधा प्राप्त नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में आरक्षण के समर्थन में हमारे देश में समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों ने जिस प्रकार इस देश की संपत्ति को नुकसान पहुँचाया है, इससे तो यही प्रतीत होता है कि जातिगत आरक्षण जिसकी कल्पना समाज में समानता प्रदान करने के लिए किया गया था, आज वही प्रावधान इस समानता के राह में सबसे बड़ा बाधक बन चूका है। आरक्षण हमें आगे बढ़ने की बजाए पीछे धकेल रहा है।


अब समय आ चूका है कि भारतीय समाज इस बात की समीक्षा करे कि क्या सचमुच आरक्षण का फायदा सही मायने में उन लोगों को प्राप्त हुआ है जिनकी कभी कल्पना की गयी थी? संविधान में शुरुआती तौर पर आरक्षण का प्रावधान सिर्फ अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जाति के लोगों के उत्थान के लिया किया था। सत्य तो यही है कि ६६ वर्षों के आरक्षण के बाद भी, निचली जाति के अधिकांश लोग ऐसे हैं जिन्हें आरक्षण का फायदा कभी नहीं मिला। उन्हें आज भी अपने मौलिक अधिकार के लिए रोजाना भेदभाव का सामना करना पड़ता है। यहाँ यह समझने की आवश्यकता है कि आरक्षण का फायदा आरक्षित श्रेणी के उन लोगों को पहुंचा है जो पहले से ही समृद्ध थे या आरक्षण का लाभ उठाकर समृद्ध हो गए हैं। जरा सोचिए, भारतीय प्रशासनिक सेवाएँ (IAS) की परीक्षा उत्तीर्ण कर अनुसूचित जनजाति या अनुसूचित जाती के हजारों लोग आज राजपत्रित अधिकारी बने हुए हैं। भला ऐसे उच्च पदस्थ अधिकारीयों को आरक्षण की क्या आवश्यकता है? परंतु सच्चाई यही है कि समाज के ऐसे ही प्रतिष्ठित व्यक्ति वर्ष-दर-वर्ष, पीढ़ी-दर-पीढ़ी आरक्षण का लाभ उठा रहे हैं। अन्य पिछड़े वर्ग के लोगों को आरक्षण देने के लिए केंद्र एवं राज्य सरकारों ने २७% आरक्षण की घोषणा की थी। पिछड़ापन निर्धारण के लिए सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक स्तर को सूचक बनाया गया। यहाँ भी आरक्षण का फायदा उन्हीं लोगों को मिल रहा है जिनका स्तर पहले से ही अच्छा रहा है।


आज यह आलम है कि आरक्षण का मुद्दा अब एक वोट बैंक में तब्दील कर दिया गया है। राजनितिक पार्टियाँ आरक्षण जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे को किसी भी कीमत पर ख़त्म नही होने देना चाहती हैं। हर राजनितिक दल अपने को दलितों, पिछड़े वर्ग, मुस्लिम इत्यादि का मसीहा कहलाने में लगा हुआ है। दलितों का मशीहा कहे जाने वाले रामविलास पासवान, सुश्री मायावती जैसे सरीखे नेताओं ने भी सिवाय अपने राजनितिक लाभ के अलावा दलित समाज के पिछड़ेपन में सुधार लेन का कोई कार्य नहीं किया है। सामाजिक, शैक्षणिक एवं आर्थिक रूप से संपन्न नेताओं को आरक्षण क्यों मिलना चाहिए?


कोई राजनितिक दल इस संवेदनशील मुद्दे को उठाकर राजनैतिक नुकसान उठाने की जहमत नही उठाना चाहता। अभी हाल ही में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख ने आरक्षण की समीक्षा का व्यक्तिगत राय व्यक्त किया था। समूचे देश में राजनितिक दलों ने ऐसा हाय-तौबा मचाया कि प्रधानमंत्री महोदय को घोषणा करनी पड़ी कि आरक्षण को ख़त्म नहीं किया जायेगा। संघ प्रमुख ने समीक्षा की बात की थी, आरक्षण ख़त्म करने की नहीं। आरक्षण ने सरकारी तंत्र को बर्बाद कर ही दिया है, अब पिछड़े वर्ग के राजनेताओं द्वारा हर संभव प्रयास किया जा रहा है कि निजी क्षेत्र में भी आरक्षण को लागु किया जाये और वो दिन दूर नहीं जब निजी क्षेत्र भी समाज के इस कोढ़ से अछूता नहीं रहेगा। अब तो हालात ऐसे हैं कि जो जाती एक बार आरक्षण की सूचि में सम्मिलित हो गए हैं, सामाजिक और आर्थिक उन्नति के बावजूद उस सूचि से किसी भी सूरतेहाल में बाहर नहीं निकलना चाहते हैं।


अभी कुछ दिनों पूर्व, हरियाणा राज्य के जाटों ने अपने जाती के लोगों को अन्य पिछड़ा वर्ग में सम्मिलित कर आरक्षण देने की मांग की। अपने मांग के समर्थन में उन्होंने धरना, सड़क जाम, तोड़-फोड़, मारपीट, सरकारी एवं निजी संपत्तियों को काफी नुकसान पहुँचाया। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली को पानी की आपूर्ति करने वाली नहर के एक हिस्से को क्षति पहुंचाई गई। स्थिति को सामान्य करने के लिए सेना को बुलानी पड़ी। कई शहरों में कर्फ्यू लगाई गई और बवालियों को देखते ही गोली मार देने का आदेश दिया गया। सिर्फ रोहतक शहर के अंदर तक़रीबन हजार करोड़ की संपत्ति को क्षति पहुंचाई गई। जो धरना आरक्षण के मांग को लेकर शुरू हुआ वह बाद में गैर-जाट के संपत्तियों को लूटने और नुकसान पहुँचाने में तब्दील हो गया। इन जाट समर्थकों को गैर-जाट के संपत्तियों को लूटने और नुकसान पहुँचाने का अधिकार कैसे मिल गया? अगर किसी ने आरक्षण की मांग का विरोध किया भी तो इसमें गलत क्या था? क्या आरक्षण समाज को बाँटने का कार्य नहीं कर रहा? क्या आरक्षण समाज के दो समुदाय को एक दूसरे के विरुद्ध खड़ा होने के लिए मजबूर नहीं कर रहा?
जाट मुख्यतः पश्छिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा एवं राजस्थान में बसे हुए हैं और न सिर्फ सामाजिक बल्कि आर्थिक स्तर पर भी समृद्ध हैं। केंद्र सरकार की मध्यस्थता के बाद हरियाणा सरकार ने घोषणा कर दी कि जाटों को भी अन्य पिछड़े जाती का आरक्षण दिया जाएगा। नतीजतन अब दूसरे राज्य के जाट भी आरक्षण की मांग उठाने लगे हैं। भला एक ऐसा सुमदाय जो सामाजिक और आर्थिक रूप से संपन्न हो, उसे आरक्षण की सुविधा क्यों चाहिए? राजस्थान के गुर्जर जाति के लोग अन्य पिछड़ा जाति से निकलकर अनुसूचित जाति के सूचि में शामिल होना चाहते हैं। गुर्जरों ने पूर्व में दो-तीन बार अपने मांग के समर्थन में सड़क एवं रेल मार्ग को रोका था, परंतु किसी निजी या सरकारी संपत्ति को नुकसान नहीं पहुँचाया गया था। सर्वोच्च न्यायलय के दखल-अंदाजी के पश्चात, गुर्जरों को अपना विरोध वापस लेना पड़ा था।हरियाणा के जाटों ने रास्ता दिखा दिया है कि यदि अपनी मांगें मनवानी हो तो तोड़-फोड़, सरकारी एवं निजी संपत्ति को नुकसान पहुंचाकर सरकारों को मजबूर किया जा सकता है।


भारत की उन्नति में आरक्षण एक बहुत बड़ा बाधा बन गया है। मैं यह नहीं कहता कि सरकार आरक्षण को बिलकुल ख़त्म कर दे। लेकिन आरक्षण की व्यवस्था अगर वैध व्यक्ति को वांछित लाभ से वंचित रखता हो तो उस व्यवस्था पर पुनर्विचार अवश्य होना चाहिए। समय की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए आरक्षण नीति में भी बदलाव की आवश्यकता है। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति या पिछड़ा वर्ग, हर आरक्षण आर्थिक पैमाने में मिले ना कि सिर्फ सामाजिक पैमाने पर आधारित हो। अगड़ी जाति कहलाने वालों में भी ऐसे लाखों-करोड़ों लोग हैं जो आर्थिक रूप से इतने पिछड़े हैं कि पढाई की बात बहुत दूर उन्हें दो समय का खाना भी ढंग से नसीब नहीं होता। क्या लाभ नहीं मिलना चाहिए?


देश के सर्वोच्च तकनिकी शिक्षण संस्थानों जैसे IIT, NIT, AIIMS, इत्यादि में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं पिछड़े वर्ग के छात्रों को आरक्षण के बुते दाखिला मिल जाता है। ऐसे छात्रों की नींव कमजोर होने की वजह से अधिकतर छात्र उस माहौल में अपने को अक्षम पाते हैं और पढाई पूरा करने में असफल रहते हैं। आवश्यकता है आरक्षण देने से पहले बुनियादी शिक्षा को मजबूत करने की और आरक्षित श्रेणी के छात्रों को बुनियादी शिक्षा मुफ्त मुहैया करवाने की ताकि आरक्षित श्रेणी से आए हुए छात्र सामान्य वर्ग के मेधावी छात्रों के समकक्ष या उनके आसपास पहुँच सकें। किसी प्रकार ऐसे कमजोर छात्र इंजीनियर या डॉक्टर बन भी जाते हैं, तो समाज को उनका योगदान नहीं मिल पाता है। आरक्षण की सुविधा होने के बावजूद अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति या पिछड़े वर्ग से कितने ऐसे इंजीनियर, डॉक्टर या वैज्ञानिक निकले हैं जिनकी ख्याति राष्ट्रीय स्तर पर या विश्व स्तर पर रही है? विचारणीय है।

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2016

देश-द्रोही देश-भक्त पर भारी



               मेरा भारत महान!  क्या सचमुच हमारा देश भारत महान है? पिछले कुछ-एक महीनों से हमारे देश में तथाकथित धर्म-निर्पेक्ष बुद्धिजीवी नेताओँ (जिनमें अधिकतर अपने बड़बोलेपन के लिए जाने जाते हैं) ने भारत के चरित्र और सम्मान के चीथड़े उड़ा दिए हैं। कभी इनटॉलेरेंस के नाम पर, कभी गाय के मांस खाने के मुद्दे पर, कभी मुस्लिम समाज से जुड़े आतंकियों पर हुए कार्यवाई के विरोध में, कभी मंदिर के निर्माण के मुद्दे को लेकर और न जाने क्या-क्या। 
        इन सभी बुद्धिजीवी नेता वर्ग के ज्ञान और अज्ञानता को हवा देता हमारे देश के बीसीयों टीवी न्यूज़ चैनल। उन्हें भी क्या दोष दिया जाए, उनकी भी अपनी मज़बूरी है। उन्हें २४ घंटे अपने चैनल पर न्यूज़ दिखाना है और बाकी चैनलों से अपने आप को आगे भी रखना है। अब भला हर रोज़ भावपूर्ण, विवेकशील और विश्लेषक समाचार तो बन नही सकता। सो न्यूज़ चैनल वाले अपनी रोज़ी-रोटी चलाने के लिए हमारे महान भारत के महानतम राजनीतिक पार्टियों से एक प्रवक्ता पकड़ लेते हैं और पैनल चर्चा के नाम पर चालू हो जाता है अपनी-अपनी ज्ञान की व्याख्यान और विश्लेषण कौशलता का फूहड़ प्रदर्शन। इन न्यूज़ चैनलों पर चल रहे चर्चा को सुन रहे हर दूसरे भारतीय के मन में यही विचार आता होगा कि इन नेताओं को किन गधों ने वोट देकर संसद सदस्य चुन लिया। अगर इन नेताओं को विशेषाधिकार प्राप्त नही होता तो हर भारतीय उन्हें उनके गैर-जिम्मेदाराना एवं विवेकहीन वक्तव्य के लिए बीच सड़क पर खड़ाकर सरेआम गोली मार देता। 
         इस देश का दुर्भाग्य है कि हमारे देश में लालू प्रसाद यादव, शरद यादव, दिग्विजय सिंह, कपिल सिब्बल, सीताराम येचुरी, अखिलेश प्रताप सिंह, राहुल गांधी, सोनिया  गांधी, इत्यादि जैसे नेता शिखर पर विराजमान हैं और देश का तक़दीर लिखते हैं। इस देश में अगर एक मुस्लिम मर जाता है सभी राजनितिक पार्टियां अपने वैचारिक मतभेद को भुलाकर एकजुट हो जाती हैं और खुल जाता है सरकार के नीतियों और कार्य-कलाप की भर्त्सना का पिटारा। सभी राजनितिक दलों के नज़र के सामने कश्मीर घाटी में पाकिस्तान और ईसिस का झंडा फहराया और लहराया जाता है लेकिन आजतक इन तथाकथित धर्म-निर्पेक्ष बुद्धिजीवी नेताओं ने कभी नहीं कहा कि उन नागरिकों ने देश-विरोधी कार्य किया है और देश में कानून के मुताबिक उनके विरुद्ध करवाई करनी चाहिए।  
       राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली स्थित प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया में कुछ बुद्धिजीवी एकत्रित होते हैं और वहां अफज़ल गुरु (जिसे उच्चतम न्यायालय ने दोषी करार दिया था) को शहीद के रूप में सम्मानित किया जाता है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अफज़ल गुरु के सजा के विरोध में कुछ वाम-पंथी विचार-धारा से प्रभावित छात्र देश-द्रोही का नारा लगाते हैं, उन्ही छात्र संगठन का एक प्रतिनिधी एक अन्य न्यूज़ चैनल के पैनल चर्चा में सम्मिलित किया जाता है और उनके साथीयों द्वारा की गयी कार्यवाई को सही बताता है। हमारे धर्म-निर्पेक्ष कहे जानेवाले बुद्धिजीवी नेताओं में से किसी ने यह कहने की जहमत नहीं उठाई कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में घटी घटना देश-द्रोह के समतुल्य है। इस घटना पर किसी राजनितिक दल की प्रतिक्रिया नहीं आई कि देश के पाठ्यक्रम का भगवाकरण और विश्वविद्यालय प्रांगण को राजनीतिक लाभ के लिए क्यों उपयोग में लाया जा रहा है। कहते भी कैसे? आखिर एक देश-द्रोही व्यक्ति को सजा देने का विरोध जो हो रहा था और ऊपर से वो व्यक्ति मुस्लिम समुदाय से जुड़ा था। ऐसे में उन विध्यार्थियों के हरकत को गलत बताकर हमारे तथा-कथित धर्म-निर्पेक्ष नेता मुस्लिम समुदाय के वोट बैंक को खोने का जोखिम कैसे उठा सकते थे ?  
        इशरत जहां मामले में इन्हीं तथा-कथित धर्मं-निर्पेक्ष नेताओं ने गुजरात पुलिस को कटघरे में खड़ा कर दिया था। और अब जब लश्कर-ए-ताइबा के लिए कार्य करने वाला एक अमेरिकी नागरिक अदालत के सामने यह खुलासा करता है कि इशरत जहां भी एक आतंवादी थी और लश्कर-ए-ताइबा के लिए काम कर रही थी तो फिर से हमारे सम्मानीय तथा-कथित धर्म-निर्पेक्ष नेता एकजुट हो गए हैं और अदालत में दिए गए डेविड हेडली के बयान पर ही प्रश्न-चिन्ह खड़ा कर रहे हैं। कल से फिर से सभी न्यूज़ चैनल पर यही बहस छिड़ गई है कि पुलिस को एक आतंकवादी संगठन के लिए कार्य कर रहे आतंकवादी को मुठभेड़ में मारने का अधिकार नहीं है? इन तथाकथित धर्म-निर्पेक्ष बुद्धिजीवी नेताओं के अनुसार पुलिस को उसे जिंदा पकड़ना चाहिए था और देश का कानून उसे सजा देती। कल तो मुझे इन न्यूज़ चैनलों पर चल रही चर्चा और तथाकथित बुद्धिजीवि नेताओं के विचार सुनने के बाद अपने को भारत का नागरिक होने पर बेहद शर्म महसूस हो रहा था। कल प्रथम बार ऐसी अनुभूति हुई कि अगर मौका मिले तो हमें इस देश को छोड़कर किसी अन्य देश की नागरिकता ले लेनी चाहिए जहाँ कम-से-कम वहां के सम्मानीय नेता शिक्षित हैं और अपने देश के हित की बात तो करते हैं । 
         देश के सीमा की रक्षा करते हुए सियाचिन ग्लेशियर में हिम-स्खलन की वजह से भारतीय सेना के १० जवानों की मौत हो गई। कुदरत का करिश्मा देखिए उनमें से एक जवान छः दिन बाद ३५ फीट बर्फ के नीचे दबा हुआ जिंदा भी मिला लेकिन दो दिन बाद उसकी भी मौत हो गई। सभी न्यूज़ चैनेल ने लांस-नायक हनमंथप्पा के निधन के खबर को एक-दो मिनट का न्यूज़ क्लिपिंग दिखाकर अपने जिम्मेदारी पूरी कर ली। इसे विवेक-शून्यता कहें या संवेदन-हीनता, इन न्यूज़ चैनलों के पास इस भारतीय सेना के जवान के मौत से ज्यादा महत्वपूर्ण इशरत जहां का मुद्दा था। 
         किसी न्यूज़ चैनल ने इस मुद्दे पर चर्चा करना उचित नहीं समझा कि भारतीय सैनिक इतने ऊंचाई पर मुश्किल भरे वातावरण में सेवा देते हैं, उनके कार्य को आसान और उनके मुश्किलों को थोड़ा भी कम करने के लिए क्या कदम उठाये जा सकते हैं? सियाचिन में मारे गए इन भारतीय सैनकों को इन न्यूज़ चैनलों की सच्ची श्रद्धांजलि होती अगर उन्होंने इशरत जहां की जगह लांस नायक स्वर्गीय हनमंथप्पा पर हमारे तथाकथित धर्म-निर्पेक्ष बुद्धिजीवी नेताओं को आमंत्रित कर पैनेल चर्चा करते। 
      कुछ-एक नेताओं ने इस बहादुर जवान के पार्थिव शरीर पर माल्यापर्ण कर अपनी जिम्मेदारी निर्वाह कर ली और कुछ ने ट्वीटर पर अपने घड़ियाली आँसू बहा लिए। उस माँ का क्या हाल होगा जिसने अपने बेटे को खो दिया, उस पत्नी का क्या हाल होगा जिसने अपने पति को खो दिया, उस दो वर्ष के बच्ची का क्या हाल होगा जिसने अभी अपने पिता के गोद में ढंग से खेलना भी नहीं सीखा होगा? यह विचारतुल्य है कि क्या भारतीय समाज का ज़मीर इस कदर मर चूका है कि हमने इशरत जहां, अफजल गुरु जैसे देश-द्रोहीयों को लांस नायक हनमंथप्पा जैसे देश-भक्त पर भारी पड़ने की इजाजत दे दी है? यह भी विचरतुल्य है कि क्या सामाजिक सोच एवं व्यवस्था परिवर्तन का समय नहीं आ गया है?
       जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में ९ फरवरी से लेकर ११ फरवरी २०१६ तक घटित घटना भारतीय समाज को झकझोरने का काम कर सकती थी और हमें  सुप्तावस्था से बाहर लाने में भी कारगर साबित हो सकती थी। लेकिन हमारे नेताओं ने अपने राजनितिक स्वार्थपूर्ति हेतू इस कुकृत्य को भी सही ठहराया और दिल्ली पुलिस द्वारा विद्यार्थियों के विरुद्ध की गई कार्यवाई को ही गलत ठहरा दिया। छात्र नेता कन्हैया कुमार की गिरफ़्तारी को लेकर न सिर्फ दिल्ली में बल्कि पुरे देश में विरोध  जताया गया। हद की सारी सीमाएं तब तोड़ दी गयीं जब वामपंथी नेता श्री डी राजा की पुत्री भी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में उठे देश-विरोधी कार्यक्रम का हिस्सा बनी। श्री डी राजा टीवी चैनलों पर उसके बाद अपने और अपने परिवार को देशभक्त कहते पाये गए। श्री डी राजा एक ऐसे देशभक्त निकले जिन्हें देश से ज्यादा अपने पुत्री की गिरफ़्तारी का डर सता रहा था। श्री राजा ने बिना समय गंवाए गृह-मंत्री श्री राजनाथ सिंह से मुलाकात की और संभवतः अपने बेटी की गिरफ़्तारी को टालने में सफल भी हुए।  
       छात्र नेता कन्हैया कुमार के गिरफ़्तारी के बाद से फरार उमर खालिद और अनिर्बान भट्टाचार्य दस दिनों तक पुलिस की नज़रों से छिपते रहे। पूरा देश इस बात का गवाह रहा कि गिरफ़्तारी को गलत करार देने के मकसद से और गिरफ़्तारी से बचने हेतु उमर खालिद और उसके पिता ने मुस्लिम कार्ड तक खेल डाला और हमारे ही बीच उसके कई हितैषी निकल आए जिन्होंने इस पुरे घटना को सांप्रदायिक नजरिये से देखने और देश को दिखने की पुरजोर कोशिश की।  
          कभी-कभी सोचता हूँ कि अगर इस देश की उच्च न्यायालयों में अगर ईमानदारी नहीं होता तो भारत के सामान्य नागरीकों का क्या हश्र होता? वर्ना हमारे तथाकथित बुद्धिजीवी एवं धर्म-निर्पेक्ष नेताओं ने तो कोई भी कसर नहीं छोड़ी है इस देश के दूसरे बंटवारे करवाने से। दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा गिरफ़्तारी से अंतरिम सुरक्षा प्रदान करने से इंकार करने के उपरांत जवाहरलाल विश्वविद्यालय के छात्र एवं शिक्षक समुदाय के पास उमर खालिद एवं अनिर्बान भट्टाचार्य को दिल्ली पुलिस के समक्ष आत्मसमर्पण करने के अलावा कोई और राह नहीं बच गया था। यह कहा जा सकता है कि देर से ही सही लेकिन देश का क़ानून देश-द्रोहियों को काबू करने में सफल रहा। अब न्यायालयों को अपना कार्य निष्पक्ष होकर करना है ताकी हर किसी को इंसाफ मिल सके।   

शनिवार, 30 जनवरी 2016

Laddakh-Pangong Lake

लेह-पैंगोंग


       अगले दिन निकल पड़ा लद्दाख के सबसे खूबसूरत एवं विश्व का सबसे बड़े प्राकृतिक लेक की तरफ। आप समझ गए होंगे मैं किसकी बात कर रहा हूँ। नहीं समझें? चलिए मैं बता देता हूँ। मैं बात कर रहा हूँ " पैंगोंग लेक" की। पैंगोंग लेक से कुछ याद आया? बिलकुल सही सोच रहे हैं आप - आमिर खान और करीना कपुर की बहुचर्चित फिल्म "3 Idiots" की वो अंतिम क्षणों की मंत्रमुग्ध करने वाली दृश्य जो नीले रंग के पानी के खूबसूरत लेक के साथ फिल्माया गया था।      
      प्रायः शैलानी पैंगोंग लेक की एक दिवसीय यात्रा करना पसंद करते हैं। इसके दो मुख्य कारण हैं - (१). लेह से पैंगोंग की दुरी तक़रीबन १६५ km की है जिसे स्थानीय ड्राइवर ५ घंटे में पूर्ण कर लेते हैं। सुबह निकल कर देर शाम तक वापस लौटा जा सकता है। (२). पैंगोंग में रात्रि विश्राम के लिए टेंट और सिमित होमस्टे के ही विकल्प हैं। जून से मध्य अगस्त माह तक शैलानियों की आवाजाही अत्यधिक रहती है। माँग और पूर्ति में असमानता के कारण अग्रिम बुकिंग नहीं कराने की स्थिति में वहां पहुँचकर रुकने का इंतज़ाम कर लेंगे वाली सोच शैलानी को परेशानी में डाल सकता है। जब शैलानियों की आवाजाही अत्यधिक रहती है उस समय एक रात्रि के लिए टेंट ४००० से लेकर ५००० रूपये प्रति रात्री मिलती है। इसके विपरीत होमस्टे में एक कमरा एक समय के खाने के साथ १००० रूपये प्रति रात्री के दर से मिल  जाता है। होमस्टे एक बेहतरीन विकल्प है जहाँ लद्दाखी परिवार के साथ रहने का  भी मौका मिलता है और जेब पर भी भारी नही पड़ता।  









      चूँकि रात्री पैंगोंग लेक में ही व्यतीत करना था इस लिए मैंने लेह से देर से निकलना मुनासिब समझा। चूँकि मैं पर्यटन के आखरी महीने में गया था मैंने पहले से कोई बुकिंग नहीं करा रखी थी। मैंने तय किया था कि वहीँ पहुँचकर रात्री व्यतीत करने का स्थान ढूँढूँगा। उन महीनों में भी रात्रि में तापमान शून्य डिग्री के आसपास रह रहा था। पैंगोंग लेक के सबसे नजदीक रिहायशी इलाके को स्पैंगमिक के नाम से जाना जाता है। इस स्थान पर स्थानीय लोगों ने अपने घर के एक हिस्से को होमस्टे में परिवर्तित किया हुआ है। मालूम हुआ स्पैंगमिक में करीब दस होमस्टे की सुविधा थी। शैलानियों की संख्या में कमी तो थी लेकिन ऐसा भी नहीं था कि वहाँ घूमने वालों की संख्या नगण्य हो। शैलानियों की संख्या कम होने की वजह से रहने के लिए स्थान ढूंढने में किसी प्रकार की कोई परेशानी नहीं हुई। जम्मू-कश्मीर पर्यटन विभाग की एकमात्र गेस्टहाउस (जो स्पैंगमिक से तक़रीबन २ km पहले है) जिसमें गरम पानी की सुविधा उपलब्ध थी उसका किराया ३५०० रूपये प्रति रात्रि की दर से माँगा गया। स्पैंगमिक में एक रात्रि के लिए उस समय टेंट वाले ३००० रूपये की मांग कर रहे थे। जबकि मुझे स्पैंगमिक में होमस्टे में ८५० रूपये में खाने और नास्ते के साथ कमरा मिल गया। ऊपर मैंने लद्दाखी परिवार के साथ ली गयी फोटो पोस्ट की है।       
        लेह से करू नामक स्थान तक रोड बहुत ही अच्छे हाल में मिला। तक़रीबन ३५ km  की दुरी आराम से ३० मिनट में पूरा किया जा सकता है। 







       लद्दाख में टैक्सी यूनियन बहुत ही प्रभावशाली है। वहाँ शैलानियों को दूसरे राज्यों में पंजीकृत टैक्सी से घूमने की अनुमति नहीं है। यहाँ तक की जम्मू-कश्मीर में पंजीकृत टैक्सी को भी लेह एवं अन्य जगहों पर शैलानियों को घुमाने की अनुमति नहीं है। ऐसे सभी टैक्सी जो लेह-लद्दाख में पंजीकृत नहीं हैं उन्हें लेह बॉर्डर से वापस लौट जाना होता है। स्वयं चालित निजी वाहन को ले जाने की अनुमति है परंतु उसे भी टैक्सी यूनियन के द्वारा रोका जाता है और उनके पूर्ण संतुष्टि तक कागजात की छानबीन की जाती है। लेह शहर में मुझे ऐसी कोई परेशानी का सामना नहीं करना पड़ा। परंतु मैं जैसे ही करू पहुँचा, मेरी गाड़ी (जिसपर दिल्ली का नंबर प्लेट है) को रोका गया और गाड़ी के कागजात और पहचान पत्र माँगा गया। पूछने पर पता लगा वो टैक्सी यूनियन के नुमाइंदे हैं। पूरी तसल्ली करने के बाद उन्होंने मुझे आगे जाने की इजाज़त दे दी।        
      
        करू से सक्ती तक की १४ km के दौरान सड़क कहीं ख़राब तो कहीं ठीक हाल में मिला। सक्ती के बाद मोबाइल में कोई सिग्नल नही मिलता है। सक्ती और तंगस्ते के बीच ७८ km की दुरी है जो "चांग ला पास" होकर गुजरती है। इस रास्ते पर गाड़ी चलाना अपने आप में एक चुनौती थी और आपके ड्राइविंग कौशल की परीक्षा हो जानी है। मैं इतने सालों से गाड़ी चला रहा हूँ, पर यह पहला मौका था जब मुझे इन पहाड़ों के तीव्र एवं अंधे मोड़ों पर गाड़ी चलाने में घबराहट महसूस हो रही थी। "चांग ला" को विश्व की तीसरे सबसे ऊँचे चोटी का ख्याति प्राप्त है जिसकी ऊंचाई समुद्र तल से १७६८८ फ़ीट की है। 
        
  




       
       चांग ला टॉप पर पहुँचने के बाद कुछ देर विराम करने एवं अपने मानसिक संतुलन को संजोने के विचार से मैंने रुकना उचित समझा। चांग ला टॉप पर एकमात्र कैफेटेरिया है जहाँ गुजरने वाले शैलानियों की आवाजाही लगी हुई थी। इसी कैफेटेरिया में मेरी मुलाकात दिल्ली से आये हुए कुछ नौजवान युवकों से हुई जो लेह से एक दिन पहले मोटरसाइकिल से पैंगोंग गए थे और उन्होंने रात्रि पैंगोंग के किनारे टेंट में व्यतीत किया था। यहाँ चाय ४० रूपये की एवं मैग्गी की एक प्लेट ६० रूपये की मिली। कहते हैं चांग ला टॉप एक ऐसा स्थान है जहाँ भारतीय सेना के जवान शैलानियों को मुफ्त चाय पिलाते हैं। 
       गाड़ी से निकलने पर एह्साह हुआ कि बाहर हड्डियों को कंपाने वाली बहुत ही तेज शर्द हवा बह रहा था। गाड़ी के भीतर और बाहर के तापमान में बहुत ज़्यादा अंतर था।जब मैं कैफेटेरिया के अंदर पहुंचा मुझे महसूस हुआ जैसे मेरी तबियत ख़राब हो रही है। मैं महसूस कर सकता था कि मेरे पाँव डगमगा रहे हैं और मुझे चक्कर आने जैसा अनुभव हो रहा था। मैंने पढ़ा था ऐसे हालत में गरम-गरम अदरक की चाय बहुत फायदेमंद होती है और तुरंत उस ऊंचाई से कम ऊंचाई की तरफ बढ़ जाना चाहिए। दो कप चाय पिने के बावजूद मेरे मानसिक और शारीरिक स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। अगले १० मिनट तक मुझे चक्कर आने जैसा अनुभव होता रहा। मैंने कैफेटेरिया से निकलना उचित समझा और वापस गाड़ी के अंदर आ गया। इसे संयोग कहें या कुछ और, लेकिन जैसे ही मैं ड्राइविंग सीट पर वापस बैठा और गाड़ी चलानी शुरू कर दी, अगले २-३ मिनट में मुझे वह चक्कर आनेवाली अनुभूति से छुटकारा मिल गया। इसका कारण बाहर का ठण्ड था या इतनी ऊंचाई पर ऑक्सीजन की कमी, मैं समझ नहीं पाया।  

        तंगस्ते के बाद लुकुंग तक (तक़रीबन ४० km) तक सड़क बहुत ही अच्छे हाल में मिले और रस्ते में पहाड़ों की प्राकृतिक खूबसूरती मंत्रमुग्ध करने वाला था। 



















       पैंगोंग लेक की पहली झलक हमें स्पैंगमिक से तक़रीबन ५ km पहले मिलता है। अलग-अलग आकार और ऊँचाइयों वाली  पहाड़ों को अपने पृष्ठभूमि में समेटे हुए और दो पहाड़ों के बीच से झांकता हुआ पैंगोंग लेक का एक किनारा बेहद ही खूबसूरत नजारा प्रस्तुत करता है। यहीं आपको पैंगोंग लेक की खूबसूरती का पहली बार अवलोकन होता है। फिर तक़रीबन २ km  तक लेक पहाड़ों के पीछे छुप जाता है। 
       स्पैंगमिक से तक़रीबन ५ km पहले रास्ता फिर से ख़राब था। एक बार तो ऐसा महसूस हुआ जैसे मैं रास्ते से भटक गया हूँ। सड़क अचानक ख़त्म हो जाता है और सामने सिर्फ मिटटी और पत्थर भरा रास्ता था जो किसी भी नए चालक को भ्रमित कर सकता है।   


       स्पैंगमिक पहुँचते हुए शाम हो चुकी थी। सूर्य भी अपने ढलान पर था जिस वजह से पहाड़ों की चोटी सूर्य के रोशनी को पैंगोंग लेक पर गिरने से रोक रहीं थी। लेक की पानी के ऊपर सूर्य की कम रौशनी पड़ने से पानी का रंग और भी ज़्यादा नीले रंग का दिख रहा था मानो जैसे हज़ारों-हज़ार लीटर नील साफ़ पानी में घोल दिया गया हो। सामने पर्वत श्रृंखला के बीच जो लेक का नजारा था उसे शब्दों में बयां करना आसान नही है। उस खूबसूरती को सिर्फ वहां जाकर महसूस किया जा सकता है। हाँ, मैं इतना दावे के साथ कह सकता हूँ कि हर भारतीय को इस प्राकृतिक खूबसूरती को अपने जीवन काल में एक बार अवश्य देखना चाहिए।  
 








         समुद्र तल से तक़रीबन१४२५० ft की ऊंचाई पर स्थित पैंगोंग लेक एक प्राकृतिक लेक है जिसकी लम्बाई तक़रीबन ७५ किलोमीटर है और जिसकी अधिकतम चौड़ाई ३ किलोमीटर तक है। कहते हैं इस लेक का ६०% हिस्सा चीन अधिकृत तिब्बत क्षेत्र में है।अगले दिन सुबह मैं अपने गाड़ी से इस लेक के किनारे-किनारे बने रस्ते पर चलता रहा। ३० किलोमीटर तक मैं इस लेक के साथ-साथ रहा जिसके आगे लेक का रास्ता बदल गया और पहाड़ों के पीछे से भारतीय सीमा पार चला गया। सुबह के वक्त सूर्य की तेज़ रौशनी में पानी का रंग थोड़ा हलके नीले रंग का दिख रहा था।