बुधवार, 9 मार्च 2016

महिला दिवस और हम


8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाया गया। भारत में भी इसे बड़े धूम-धाम के साथ मनाया गया।  हमारे कार्यालय में भी कल इसका आयोजन किया गया जिसमें खाने-पिने, नाच-गाने, नाट्य प्रस्तुति का आयोजन किया गया था।। साथी महिलाओं एवं अन्य कार्यालाओं में कार्य करने वाली महिलाओं के पहनावे और उनके हाव-भाव को देखकर यही लग रहा था कि  कोई भी महिला इस मौके को अपने हाथ से जाने नही देना चाहती थी। सभी में होड़ लगी थी कि कौन सबसे सुन्दर और आकर्षक दिख रही है और किसे सबसे अधिक मुबारकबाद या अभिनदंन प्राप्त होता है। ऐसी अनुभूति होनी स्वाभाविक भी है क्योंकि कल महिलाओं के लिए विशेष दिन था जो खास तौर पर उनके लिए नामित किया गया है। 

हमारे कार्यालय के सभी महिला (परइ कार्यालय में तक़रीबन 70 महिलाएँ होंगी) जो वर्ष के ३०० कार्यदिवस में शर्ट-पैंट, सलवार-कुर्ता या जींस पहन कर आती थीं, कल जब मैंने उन्हें भारतीय संस्कृति एवं परंपरा के अनुरूप साड़ी में देखा तो पहले तो समझ ही नहीं आया कि आखिर माजरा क्या है। भला सभी महिला एक साथ साड़ी क्यों पहन कर आई हैं? फिर अचानक ध्यान हुआ कि आज तो महिला दिवस है और उसी का खुमार इन महिलाओं पर नजर आ रहा है।  

हमारे अध्यक्ष महोदय एवं अन्य वरिष्ठ अधिकारीयों ने भी इन महिलाओं को संबोधित किया और उनके उत्थान एवं शशक्तिकरण के लिए और क्या किया जा सकता है उस पर अपना विचार व्यक्त किया। जिन महिलाओं को महीने के 60 हज़ार से लेकर 2 लाख रूपये तक की तनख्वाह मिल रही हो, जो महिलाएं पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर नौकरी में पदोन्नति की होड़ में लगी हुई हों, जिन महिलाओं को पुरष कर्मचारियों के समतुल्य वेतन मिल रहा रहा हो, भला उन्हें और कितना शशक्तिकरण की आवश्यकता है? हाँ, लेकिन जब शहर से बाहर कार्यालय के कार्य से टूर पर जाने की बात होती है या दूसरे कार्यालय में हस्तांतरण की बात उठती है, तो यही महिला इस बात की दुहाई देने लगती हैं कि वो तो महिला हैं, भला उन्हें क्यों यह सब करने के लिए कहा जा रहा है? किसी संगोष्ठी या प्रशिक्षण में भाषण देने की बारी आती है तो उस समय यही महिला बराबरी की बात करती हैं। आखरी ऐसा दोहरा मापदंड क्यों?

आज के परिवेश में भारत में महिला की स्थिति एवं उनके शशक्तिकरण के ऊपर टीवी, पांच सितारा होटलों में, महिला संगठनों ने कई सारे परिचर्चा रखे। अधिकतर ने यही कहा कि महिला ही महिला की दुश्मन हैँ, उनके पिछड़ापन के लिए महिला दोषी हैं। कुछ-एक ने तो महिलाओं के पिछड़ापन का कारण सालों-साल से संसद में महिला आरक्षण बिल को लटके रहने को ही बता दिया और उनके मुताबिक इस पिछड़ेपन को दूर आरक्षण देकर ही किया जा सकता है। संविधान में कुछ जाती विशेष के लोगों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है। आरक्षण लागु होने के 66 वर्षों बाद भी क्या हम उन जाती विशेष लोगों का पिछड़ापन दूर करने में सफल हो पाये हैं? मेरा तो उत्तर नहीं है, हो सकता है आपका विचार मुझसे भिन्न हो! भारत में हम हर कार्य का समाधान आरक्षण में ही क्यों ढूंढते हैं? 

अगर सही मायने में उत्थान एवं शशक्तिकरण करनी हैं तो महिलाओं में शिक्षा के स्तर को बढ़ाने की आवश्यकता है। उन्हें शिक्षित कर उनके लिए रोजगार के अवसर प्रदान करने की आवश्यकता है। उनके लिए घर-घर में शौचालय, पिने का साफ़ पानी एवं खान-पान में सुधार लाने की आवश्यकता है। 

हम अधिकतर ऐसे परिचर्चाओं में यह जरूर सुनते हैं कि महिलाओं का शारीरिक शोषण किया जाता है और पुरुष महिलाओं को भोग-विलास का साधन समझते हैं। मैं नहीं कहता कि इस बात में कोई अतिश्योक्ति है। परन्तु अब महिलाओं को भी अपनी धरना बदलने की आवश्यकता है। मैं रोज Delhi  Metro से 70 km यात्रा करता हूँ और सफर के दौरान कितने ही प्रकार के मुशफ़िरों को देखने और मिलने का अवसर प्राप्त होता है।भीड़-भाड़ वाले मेट्रो में ढंग से खड़े होने की भी जगह भी नहीं मिलती। उन मुशाफ़िरों में से स्कूल-कॉलेज के विद्यार्थी भी होते हैं जो अधिकतर लड़के-लड़कियों के जोड़े के रूप में देखे जा सकते हैं।  तक़रीबन हर रोज किसी न किसी ऐसे जोड़े से आप टकरा जायेंगे जो एक दूसरे के शरीर से खेलते रहते हैं, कभी लड़का लड़की का गाल छूता है, कभी उसके कमर में हाथ डालता है, कभी उसके जाँघों पर हाथ फेरता है, तो कभी लड़की लड़के के गाल चूमती है, उसके कमर में हाथ रखती है और न जाने क्या-क्या। अब यहाँ कौन किसकी शोषण कर रहा है? यहाँ तो औरत भी उस विलाषिता में स्वतः बराबर की भागीदारी बनती है। इन नौजवानों में शादी से पूर्व शारीरिक संबंध बना लेना और नित्य बनाये रखना बहुत ही आम बात हो चला है और जो शादी से पूर्व यह सब नहीं करना चाहते, उन्हें हीन भावना से देखा जाता है और पिछड़ा समझा जाता है। 

मैं अपने को पारिवारिक वृक्ष का आखरी पीढी मानता हूँ जहाँ हिंदू धर्म के विचार एवं भारतीय संस्कृति को महत्व दिया जाता है। समाज में आ रहे परिवर्तन एवं वैचारिक मतभेद का शिकार मैं भी हुआ हूँ। भारत में Valentine Day का बोलबाला बढ़ा है। आज की पीढ़ी को नक़ल करती उम्रदराज बीबियाँ, मासा-अल्लाह। भले ही Valentine का सही मतलब नहीं समझती हैं लेकिन Valentine Week में परपुरुष द्वारा ऑफर किया गया chocolate पर ऐतराज जाहिर करने पर पति को शक्की, संकीर्ण सोच वाला तगमा देने में पीछे नहीं रहती। भला कौन पति इस बात की इजाजत देगा कि Valentine Week में कोई पत्नी का Facebook फ्रेंड उसके पत्नी को Chocolate ऑफर करे? क्या शादी-शुदा महिलाओं द्वारा ऐसा व्यवहार सामाजिक मानक के अनुरूप है? हिंदू धर्म में शादी के पश्चात माँग में रोजाना सिंदुर भरना एक परंपरा है, एक प्रथा है, जो संकेत करता है कि महिला शादी-शुदा है। मेरा व्यक्तिगत अनुभव कहता है कि सिंदूर भरा माँग देखकर लोगों में ऐसी महिलाओं के प्रति नजरिया बदल जाता है। परंतु समय के साथ इस परंपरा / प्रथा का पतन शुरू हो चूका है। आलम यह है कि मुझे तो अब अपनी पत्नी के माँग में सिंदूर ढूँढना पड़ता है और अथक प्रयास के बाद भी सिंदूर का एक कतरा नजर नहीं आता है। शुरू में मैंने सिंदूर नहीं भरने पर विरोध जताया था परंतु अब मैंने उसके सुनी मांग को देखना अपना नियति मान लिया है। 

घर में महिला अपनी प्रभुत्व बनाये रखे, इसके लिए बच्चों के मन में पिता के प्रति द्वेष उत्पन्न करना ताकी बच्चे पिता से बात ना करें और सिर्फ अपनी माँ की सुनें। और यह सिर्फ एक घर की बात नही है, हर दूसरे-तीसरे घर में ऐसा व्यवहार देखा और सुना जा सकता है। भला यह किस प्रकार का शशक्तिकरण है? हम शशक्तिकरण की बात तो करते हैं लेकिन महिलाओं में पैठ करती वैचारिक पतन की बात क्यों नहीं करते? 

नोट: उपरोक्त विचार पूर्णतः मेरे व्यक्तिगत राय हैं और किसी वर्ग / समुदाय या व्यक्तिविशेष के भावनाओं को ठेश पहुँचाने के मकसद से नहीं व्यक्त किये गए हैं।  
  
     

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