समाज परिवर्तनशील है। तक़रीबन २०-२५ वर्ष पूर्व तक भारतीय समाज दो तबके में बंटा हुआ था - एक तबका नौकरी पेशा का था और दूसरा तबका निजी व्यवसाय का। जहाँ सरकारी क्षेत्र की नौकरी में कम वेतन परंतु स्थिरता थी, वहीँ निजी क्षेत्र में अधिक वेतन लेकिन स्थिरता की कमी थी। एक छोटे से गलती के लिए भी नौकरी से निकाला जा सकता था। सरकारी क्षेत्र में नौकरी के अवसर कम होते गए और निजी क्षेत्र में नए-नए व्यवसाय आने से अवसर बढ़ते गए। दोनों क्षेत्रों में वेतन में असमानता पहले भी थी, आज भी हैं और भविष्य में भी रहेंगे।
एक वक्त था जब निजी व्यवसाय करने वाले नौकरी पेशा में लगे लोगों को अपने से कम आँका करते थे। निजी व्यवसाय में लगे व्यक्तियों को लगता था कि समाज में नौकरी करने वालों की तुलना में उनका स्थान उच्च है। उनकी आय नौकरी करने वालों से अधिक थी। निजी व्यवसाय करने वालों के बच्चे बाप-दादा द्वारा चलाये जा रहे व्यवसाय को ही आगे बढ़ाने में लग जाते थे। नौकरी करना उनके प्रतिष्ठा के खिलाफ था। निजी व्यवसाय वाले अपने बच्चों की शादी भी निजी व्यवसाय में लगे परिवार में ही करना पसंद करते थे। उन्हें लगता था कि उनके बच्चों को नौकरी वाले वो सभी सुख नहीं दे सकते जो निजी व्यवसाय वाले दे सकते हैं। जो नौकरी करते थे वो निजी व्यवसाय वालों की तरफ टक-टकी लगाए रखते थे और सोचा करते थे कि भगवान ने क्या किस्मत दी है इन्हें। दोनों तबकों को दूसरे पक्ष की तरफ हरियाली अधिक नज़र आती थी ।
समय बदला, सामाजिक संरचना में परिवर्तन हुए, सरकारी नियम-कानून में परिवर्तन हुए, बड़े-बड़े औद्योगिक घराने बाजार में आ गए। लघु स्तर के निजी व्यवसाय में लगे लोगों के आमदनी पर इन सबका असर पड़ा। नौकरी करने वालों को हेय दृष्टि से देखने वाले अब नौकरी वालों को सम्मान से देखने लगे। निजी व्यवसाय वालों का भी अब यही प्रयास रहने लगा कि उनके बच्चे भी नौकरी करें और सरकारी नौकरी ही करें। उन्होंने अपने बच्चों की शादियां भी नौकरी करने वालों के साथ शुरू कर दिया।
मेरे भी पहचान में कई लोग हैं जिन्होंने अपना निजी व्यवसाय लगा रखी हैं और तक़रीबन ३-४ करोड़ रूपये का वार्षिक टर्नओवर भी है। उनमें से अधिकतर ने अपने बच्चों को तकनिकी अथवा व्यावसायिक शिक्षा दिलाई है। उनका भी यही धारणा है कि उनके बच्चे शिक्षा पूर्ण करने के उपरांत नौकरी करें।
उन सभी को यही लगता है कि सिर्फ वेतन भोगी ही अपनी आय से संतुष्ट हैं। उसका एक बड़ा कारण यह हो सकता है कि वेतन भोगियों को अपने आमदनी का अंदाजा होता है और इस कारण वेतन भोगी अपने खर्चे भी अपने आमदनी के अनुसार ही रखते हैं। आज वेतन भोगियों की आय भी एक सम्मानीय स्तर तक जा पहुंची है और कुछ उच्च पदों पर निजी क्षेत्र में पदस्थापित अधिकारीयों की आय तो आठ अंकों तक जा पहुंची है।
सरकारी क्षेत्र में नौकरी के अवसर तो पहले ही काम होने लगे थे। निश्चित आय एवं स्थिरता जैसे कारणों से सरकारी नौकरियों में आरक्षण के बढ़ते दबाव के कारण सरकारी क्षेत्र में अब अवसर काफी कम हो गए हैं। निजी क्षेत्र में भी इसका असर पड़ा है। वहां भी रोजगार के अवसर धीमी हो गए हैं।
कहते हैं न पैसा अपने साथ बुरी आदतों को भी साथ लेकर आता है। लोगों के आमदनी तो बढे लेकिन आर्थिक अनुशासनहीनता भी बढ़ते गए। हम विलासिता के सभी साधन जुटाने की होड़ में लग गए। आर्थिक उदारता की वजह से रोज-मर्रा के सभी सामान आसान किस्तों में और ऋण सुविधा से उपलब्ध हो गए। हमने पहले एक घर ख़रीदा, फिर दो किये और अब तो ये आलम है कि कुछ ने तो तीन-तीन घर खरीद चुके हैं। नौकरी पेशा वाले जो एक समय में अपने को संतुष्ट महसूस करते थे आज ऋण के बोझ से दबे हुए हैं। घर के लिए ऋण, गाड़ी के लिए ऋण, ए सी के लिए ऋण, छुट्टियों में घूमने के लिए ऋण, बच्चों की शिक्षा के लिए ऋण। आय और खर्च के बीच का संतुलन डगमगाने लगा है। वही तबका जो एक वक्त अपने निश्चित आय के कारण प्रतिष्ठित एवं सम्मानीय माना जाने लगा था, आज वही तबका अपने अनुशासनहीनता एवं लोलुपता की वजह से हाशिये पर खड़ा है।
हमने असंतुष्टि का पैमाना बदल दिया है। "हमारे पास क्या नहीं है" हम उससे असंतुष्ट नहीं हैं। "हमारे पड़ोसी और दोस्त के पास क्या है" हम उसकी वजह से ज्यादा असंतुष्ट हैं ? हम उन्हें देखकर संतुष्ट नहीं होते जो हमसे कम भाग्यशाली हैं या जो हमसे कम समृद्ध हैं। इसके लिए हम ईश्वर को आभार प्रकट नहीं करते कि आपने हमें वो सब कुछ दिया है जो अनेकों के पास नहीं है। परन्तु हम यह शिकायत जरूर रखते हैं कि ईश्वर ने हमारे साथ ही ऐसा क्यों किया? हमें उनके जैसा सामर्थ्य क्यों नहीं बनाया? हमें वो सारी सुविधाएँ क्यों नहीं दी जो हमारे पडोसी के यहाँ उपलब्ध है?
हम यह भूल गए हैं कि मनुष्य जीवन एक यात्रा है। यह पुर्नत: हम पर निर्भर करता है कि इस यात्रा को हसीन और यादगार बनाई जाए या दूसरों से तुलना कर उसे नकारात्मक भावनाओं से भर दिया जाए। यात्रा का भरपूर आनंद हम तभी ले सकते हैं जब हम यात्रा पर कम से कम सामान और साधन के साथ निकलें। यात्रा के दौरान हमारा मकसद सफर का आनंद लेना होना चाहिए ना कि अपने सामान और संसाधनों की रक्षा करने में समय गँवाना। हम वर्तमान के खुशियों को छोड़कर, अपने सुख के लिए सांसारिक एवं भौतिक संसाधनों को इकठ्ठा करने की होड़ में लग गए हैं। इन सब के लिए कहीं न कहीं हमारे परिवार का हर सदस्य जिम्मेदार होता है।
हमें दूसरों से तुलना करने की आदत सी हो गयी है। हमें हमेशा यही लगता है कि जिंदगी के सारे मौज-मस्ती सिर्फ धनाढ्य लोग ही करते हैं। जबकी सच्चाई इससे कोसो दूर है। जब हमारे पास धन-सम्पति बढ़ने लगती है तो फिर हम और अधिक अर्जन करने की होड़ में लग जाते हैं। नतीजतन मन की शांति कम हो जाती है, रातों की नींद कम हो जाती है, नींद के लिए दवाईयां लेनी पड़ती है, वगैरह वगैरह। धन-संपति उस मृगतृष्णा के समान है जिसके समीप पहुँचते ही वह उतना ही दूर हो जाता है और फिर से हम उसके समीप पहुँचने की कोशिश में लग जाते हैं ।
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